प्रेम को भाषा की ज़रूरत थी ही नहीं....ऐसा इतिहास में दर्ज था...अब भाषा ज़रूरी हो गई थी । बहुत मेहनत से पुरुष नई भाषा ईजाद कर रहा था। उसके निपट प्रेमी से भाषा विज्ञानी हो जाने का भेद दोनों पर ही अब खुला था। हर दिन वह नया शब्द गढ़ता, उसका अर्थ बनाता, नोक-पलक दुरुस्त करता और करीने से सजाकर रख देता। परंपराओं के पीछे भागते हुए पुरानी और घिसी-पिटी शब्दावली का इस्तेमाल करने के पक्ष में वो बिल्कुल नहीं था जबकि स्त्री पुरातन प्रिय थी। वह तर्क देती-सदियों से कई दुनियाओं में गूंजते घिसकर चपटे और आकारहीन हुए शब्द कुरूप होने पर भी परखे हुए, अर्थों में खरे उतरे हुए सच्चे शब्द हैं...। पुरुष हर उस शब्द को ख़ारिज करके आगे बढ़ रहा था जिसका इस्तेमाल दुनिया के लोग धड़ल्ले से करते....वो पुरातन का विरोधी था।
यानी अब स्त्री के लिए यह भाषा सीखना लाज़मी था.... पुरुष से बात कर सकने के लिए एक यही एक पुल शेष था। वो सीखती और भूल जाती...बार-बार यही हो रहा था। एक दिन अपने बाएं कंधे से स्त्री का सिर हटाकर पुरुष ने झोला लटका लिया....शब्दों को सुरक्षित रख सकने के लिए। बोझ बढ़ रहा था...ज़रूरत थी एक ऐसी किताब की जिसमें वे सारे शब्द अपने अर्थ के साथ जाकर आराम से बैठ जाएं। ज़रूरत पड़ने पर बाअदब आकर हाजि़र हों और कभी गुस्ताख़्ाी न करें अर्थ में गड़बड़ी की।
परीक्षा के दिन थे। स्त्री के लिए उन शब्दों के इस्तेमाल में सबसे बड़ी परेशानी उनका बेहद ठंडा और सख़्त होना था। जैसे तू और तुम की जगह आप जैसा सुथरा और नुकीला शब्द रखते हुए पुरुष ने गर्व से उसकी ओर देखा लेकिन वह सिर्फ़ इतना ही सोच सकी कि उन दोनों के बीच का फा़सला अचानक इतना बढ़ क्यों गया....। वह शब्द की गढ़न पर मुग्ध होता फिर उसे डाल लेता अपने झोले में। झोले का वज़न उसे संतोष देता था उस उपलब्धि का जिसमें वह किसी और दुनिया का सा महसूस करता। दरअसल एक विदेश बन चुका था उन दोनों के बीच....भाषा का ही नहीं भाव का भी। पुरुष ने नई ज़बान में उससे सवाल पूछ रहा था और वह चुप होकर दूसरी तरफ देखने लगी, जैसे ये सब उसके लिए था ही नहीं।
तो किसके लिए था यह सब.........कौन था जो पुरुष की इस भाषा को समझता था, कौन था जो उसे पुकार रहा था इस भाषा के व्याकरण को तरतीब देने और विज्ञान को लिपिबद़ध कर देने के लिए, जवाब ढूंढना अब पुरुष के लिए भी ज़रूरी हो गया था।