Friday, 28 August 2009

तू नहीं तुम.....;तुम नहीं आप

 प्रेम को भाषा की ज़रूरत थी ही नहीं....ऐसा इतिहास में दर्ज था...अब भाषा ज़रूरी हो गई थी । बहुत मेहनत से पुरुष नई भाषा ईजाद कर रहा था। उसके निपट प्रेमी से भाषा विज्ञानी हो जाने का भेद दोनों पर ही अब खुला था। हर दिन वह नया शब्‍द गढ़ता,  उसका अर्थ बनाता,  नोक-पलक दुरुस्‍त करता और करीने से सजाकर रख देता। परंपराओं के पीछे भागते हुए पुरानी और घिसी-पिटी शब्‍दावली का इस्‍तेमाल करने के पक्ष में वो बिल्‍कुल नहीं था जबकि स्‍त्री  पुरातन प्रिय थी। वह तर्क देती-सदियों से कई दुनियाओं में गूंजते  घिसकर चपटे और आकारहीन हुए शब्‍द कुरूप होने पर भी  परखे हुए, अर्थों में खरे उतरे हुए सच्‍चे शब्‍द हैं...। पुरुष हर उस शब्‍द को ख़ारिज करके आगे बढ़ रहा था जिसका इस्‍तेमाल दुनिया के लोग धड़ल्‍ले से करते....वो पुरातन का विरोधी था।

यानी अब स्‍त्री के लिए यह भाषा सीखना लाज़मी था.... पुरुष से बात कर सकने के लिए एक यही एक पुल शेष था।  वो सीखती और भूल जाती...बार-बार यही हो रहा था। एक दिन अपने बाएं कंधे से स्‍त्री का सिर हटाकर पुरुष ने झोला लटका लिया....शब्‍दों को सुरक्षित रख सकने के लिए। बोझ बढ़ रहा था...ज़रूरत थी एक ऐसी किताब की जिसमें वे सारे शब्‍द अपने अर्थ के साथ जाकर आराम से बैठ जाएं। ज़रूरत पड़ने पर बाअदब आकर हाजि़र हों और कभी गुस्‍ताख्‍़ाी  न करें अर्थ में गड़बड़ी की। 

परीक्षा के दिन थे। स्‍त्री के लिए उन शब्‍दों के इस्‍तेमाल में सबसे बड़ी परेशानी उनका बेहद ठंडा और सख्‍़त होना था। जैसे तू और तुम की जगह आप जैसा सुथरा और नुकीला शब्‍द रखते हुए पुरुष ने गर्व से उसकी ओर देखा लेकिन वह सिर्फ़ इतना ही सोच सकी कि उन दोनों के बीच का फा़सला अचानक इतना बढ़ क्‍यों गया....। वह शब्‍द की गढ़न पर मुग्‍ध होता फिर उसे डाल लेता अपने झोले में।  झोले का वज़न उसे संतोष देता था उस उपलब्धि का जिसमें वह किसी और दुनिया का सा महसूस करता। दरअसल एक विदेश बन चुका था उन दोनों के बीच....भाषा का ही नहीं भाव का भी।  पुरुष ने नई ज़बान में उससे सवाल पूछ रहा था और वह चुप होकर दूसरी तरफ देखने लगी,  जैसे ये सब उसके लिए था ही नहीं।  
तो किसके लिए था यह सब.........कौन था जो पुरुष की इस भाषा को समझता था, कौन था जो उसे पुकार रहा था इस भाषा के व्‍याकरण को तरतीब देने और विज्ञान को लिपिबद़ध कर देने के लिए, जवाब ढूंढना अब पुरुष के लिए भी ज़रूरी हो गया था।

Tuesday, 27 January 2009

...तो ये जनम ज़ाया हो जाता

कई मुहूर्त हवा का द्वार खटखटा कर चले गए...कई मौसम अपनी गुमशुदगी के अभिशाप को तोड़ देने की गुज़ारिश करते-करते रह गए ..कई सदियां गुज़र गई थीं....पुरुष को पथराए हुए। न जाने कब से स्‍त्री उसकी ओर एकटक देख रही थी बिना थके....बिना रुके...बिना यह कहे कि वो दिन भी आ-आकर लौटते हुए थकने लगा है जिसमें गुंथा हुआ एक ख़ास पल उनके दुख-सुख हर लेने के लिए अब भी आया करता है। वह उस पल में प्रवेश करने का इंतज़ार कर रही थी जबकि पुरुष की भुलभुलैया कुछ और थी !  .वह खोया था अपनी ही हथेलियों पर बिछे अनिश्‍चय के जाल में...जिसमें खिंची एक नई रेखा बार-बार उसके विश्‍वास को हिला रही थी....भरी आंखों से उसे अक्‍सर अब वो तिल धुंधला नज़र आता था जो स्‍त्री की हथेली के तिल का जुड़वां था..।

 कौन था...जो जान सकता था इस प्रेम के रहस्‍य को...और कौन था जो साक्षी बनकर बता सकता कि उन दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया गया है....सिवाय उस पल के जिससे पुरुष बेपरवाह हो चला था....। असंख्‍य अंधेरों को कूटकर रची गई एक अमावस की रात पुरुष ने सहमकर स्‍त्री से कहा-पता है, तुम्‍हारा साथ न मिलता तो क्‍या होता.....स्‍त्री की आंखें हमेशा की तरह उस आवाज़ को सोख लेने के लिए  सूखी  थीं..पूछ बैठी... क्‍या होता...? पुरुष ने हथेली में उग आई नई लकीर को टटोला और कहा-साथ न मिलता तो तुम्‍हारे‍ बिना ये जनम ज़ाया हो जाता....। सवांद अधूरा था... लेकिन पूरा होने से कहीं ज्‍़यादा अर्थपूर्ण और इतना पवित्र कि इसे सुन रहा वह पल अपने उस फै़सले को स्‍थगित कर बैठा जिसमें आगे से कभी उन दोनों तक आकर द्वार न खटखटाने का संकल्‍प था...। वो पल एक बार फिर लौट चला था लेकिन नाउम्‍मीद होकर नहीं... बल्कि आश्‍ वस्‍त होकर फिर से आने के लिए। जाते हुए उसने सबसे काली अमावस की दवात में एक उंगली डुबोकर उनके माथे पर एक टीका लगा दिया यह सोचकर,  कि अब कभी इस प्रेम को कोई काली नज़र न छू सकेगी....।

......................
उन्‍हें जाने दो
एक के बाद एक
सूर्य, तारे
विपुल प्रथ्‍वी,
सयाना आकाश,
अबोध फूल।

मुझे रहने दो
अपने अंधरे शून्‍य में
अपने शब्‍दों के मौन में,
अपने होने की निराशा में।

मुझे रहने दो उपस्थित
आखि़री अनुपस्थिति में।
                         
अशोक वाजपेयी

Tuesday, 21 October 2008

क्‍या कहकर पुकारूं?


मौसम कहीं चले गए थे। बहुत दिन से उनकी कोई ख़बर नहीं। बिना बताए ही निकल गए। एक बार पलटकर कहा भी नहीं कि रोक लो हमें, बाद में ढूंढ़ न पाओगे। अब क्या कहकर उन्हें लौट आने के लिए आवाज़ लगाई जाए... दोनों को ही नहीं पता। कभी पूछे ही नहीं थे मौसमों के नाम। कोई अगर कह दे मौसम... मतलब क्या...? तो जवाब में उनके पास बताने के लिए बस इतना ही था कि वे हल्के कुनकुने से ख़रगोशी मुलामियत वाले दिनों की बात कर रहे हैं ...या उन रातों को ढूंढ़ रहे हैं जिसकी पीठ पर गाढ़े और ठंडे कोहरे की लामबंदी एक गट्ठर की शक्ल में नज़र आती थी.. या फिर वो दुपहरियां जिनमें हर तरफ छांव का छलावा डोलता फिरता। या कुछ ऐसे दिन भी, जिनमें गीले मन पर सतरंगी धनुष खिंचे नज़र आते थे। पहचान के लिए एक से ज़्यादा निशानियां थीं, लेकिन इस सबसे मौसम लौटने वाले नहीं थे। उन्हें वही पुकार चाहिए थी, जिसमें उनका नाम गूंजे।

पुरुष का तर्क था- नाम पूछना औपचारिकता है.. और हर औपचारिकता झूठ पर टिकी होती है। स्त्री ने उसकी बात पर कभी सवाल उठाया ही नहीं, तो भला मौसमों के नाम कौन पूछता और पूछकर करता भी क्या। वह कहता- बात सिर्फ़ अहसास की है, जिसे नाम नहीं दिया जा सकता, जब नाम दिया ही नहीं जा सकता, तो रखा कैसे जा सकता है, और रख भी लिया, तो क्या वह उस अहसास का पूरा और सही अनुवाद सामने रख पाता है... अक्सर स्त्री इन बातों को न समझते हुए भी हां में सिर हिला दिया करती थी। एक लकीर पर चलना उसकी नियति थी... उससे ज़रा भी हटते ही अंदर से एक आवाज़ आती- कहां भटक गई.... पता है न तेरा रास्ता सीधा है....। अब इस रास्ते जैसे ही सीधे-सपाट दिन सामने नज़र आते थे। सारे अहसास मौसमों के साथ गुमशुदगी में थे और इसकी जि़म्मेदारी किस पर आयद हो.... पता नहीं था।

पुरुष मौसमों की चिंता में गुम था और स्त्री के सिर एक और दुख आन पड़ा था। वह दिन रात घुल रही थी इस सोच में कि उन्हें तो एक-दूसरे का नाम भी नहीं पता.... अगर किसी दिन मौसम की तरह पुरुष उठकर चल दिया, तो क्या कहकर आवाज़ देगी उसे... जिन निशानियों की बात पुरुष किया करता है, वे तो पास आने पर ही दिखती हैं न... दूर से बुलाना हो तो क्या कहेगी वह...। और अगर दुर्भाग्य से स्त्री ही किसी दिन राह भटक गई, तो कैसे पुरुष आवाज़ देगा उसे....। वह तो यूं भी रात-दिन अपना घर बनाने के लिए अक्सर अकेले भटकती फिरती है। कितना अजीब था, एक उम्र बिना नाम के गुज़ार लेने के बाद अचानक नाम की ज़रूरत पड़ जाना...। नाम होने की औपचारिकता का न निभाया जाना, असुरक्षा के कुंए के बहुत पास जाकर रोकता था उसे... डूब जाने के बेहद क़रीब। वो डूबना नहीं चाहती थी... अकेले तो बिल्कुल ही नहीं।

अब उसे एक शुभ मुहुर्त ढूंढना था, जिसमें वे एक दूसरे के नाम रख सकें.....।

Wednesday, 15 October 2008

चांद को पिघलाकर कान का फूल बनाना


अपने अंदर बने मौन के कुएं में वे एक शब्द छप्प से फेंकते और देर तक उससे बने वलय देखते रहते। जांचना जैसे ज़रूरी हो गया था कि शब्दों का सही अर्थ प्रतिध्वनित हो रहा है या नहीं। मानो एक गोपनीय प्रयोगशाला में परख लेने के बाद ही वे अब शब्दों को बाहर लाना चाहते हों। कितना अजीब था एक दूसरे की नज़र से बचने के लिए नहीं बल्कि ठीक से देख सकने के लिए आंख बंद कर लिया जाना। इन्हीं दिनों तो एक बार फिर आविष्कार किया था उन्होंने उस नूर की उस बूंद का जिसे ईश्वर ने उनकी आत्मा में आधा-आधा रोपा था। यही एक बात उन्हें बहुत सुख देती।

इसी सुख के बीच ऐन सिर पर आकर टंग गई पूरनमासी ने धीरे से आकर स्त्री के कान में रहस्य खोला- आज की रात सब कुछ मेरी चांदनी से धो लेना... सारा कलुष दूर हो जाएगा....। इतना उजलापन होगा जीवन में कि कभी किसी अंधेरे का साहस नहीं होगा पास फटकने का। यह अंधविश्वास था लेकिन स्त्री को इसे मान लेने में कोई उज्र न हुआ। उसने एक-एक करके वे सारे शब्द चांदनी में धो डाले जो उनके बीच सांझे थे और मैले होकर बहुत चुभते थे। उन सारी कामनाओं को एक बार फिर बाहर निकालकर चांदनी दिखा दी जो मन के कोनों में पड़े-पड़े अपना रंग-रूप खो रही थीं। उसे लगा इस बार पूरनमासी एक रात के लिए नहीं बल्कि पूरे जीवन के लिए आई है, प्रेम के चक्र को पूरा करती रिश्तों की पूरनमासी। ब्रह़मकमल इस बार खुलकर खिलखिलाए थे।

स्त्री सबकुछ उजला कर लेना चाहती थी तो पुरुष का कारीगर दिमाग़ इस चांदनी से एक ऐसा गहना गढ़ना चाह रहा था जो वो स्त्री को दे सके निशानी के तौर पर। उसने कहा- मैं एक पाज़ेब बनाता हूं....फिर कहा नहीं कंगन बनाना चाहिए....फिर सोचने लगा चोटी में गूंथ सकने लायक फूल ही क्यों न बना दूं....। उसका चित्त थिरता नही था और स्त्री ने सब पढ़ लिया था उसकी आंखों में। कहने लगी- तुम एक अंगूठी क्यों नहीं बनाते, मेरी अनामिका के लिए....? पुरुष को बात जंच गई लेकिन बनाते-बनाते उसका चंचल मन फिर बदला और वो बनाने बैठ गया ऐसे कर्णफूल जो चांदनी की सबसे उजली किरण को पिघलाकर गढे़ जाने थे।

स्त्री अपनी उंगलियां देखते हुए एक अंगूठी की कल्पना कर रही थी कि दमकते हुए कर्णफूल उसके कानों की लौ को छूने लगे...। हंसते हुए स्त्री ने पूछा- तुम याद रख सकोगे कर्णफूल और मुझे... पुरुष ने कहा- मैंने ही तो बनाए हैं, क्यों याद नहीं रखूंगा। अंगूठी तो इसलिए नहीं बनाई कि कहीं पानी पीते हुए वो उंगली से फिसलकर किसी मछली के पेट तक न पहुंच जाए...। कहते हुए उसकी आवाज़ इतनी पारदर्शी हो गई थी कि उसमें शामिल सारे सच्चे रंग दिप-दिप कर उठे थे.... इसी समय चांद को पहली बार लगा कि उससे ज्यादा चमकदार है यह प्रेम और हर पवित्रता से ज्यादा पवित्र है इसका रंग। पुरुष झूठ नहीं बोला था। उसे विश्वास था कि वो अपने किए प्रेम की तरह अपने गढ़े गहने को भी हमेशा, हर हाल में पहचान सकेगा....

Monday, 6 October 2008

बहुत, मतलब बहुत...

चुप को चुपके से तोड़ देने की बात पहले किसके मन में आई....इसे लिखकर रखने की ज़रूरत नहीं थी। इतना समझ लेना काफ़ी था कि वे अपने बीच बीत चुके सदियों के मौन का कोई निशान बाक़ी नहीं रखना चाहते। सचमुच रस्सी का अस्तित्व महज़ उसे पकड़े रहने में ही तो था, सिरा हाथ से छूटा और उसके बाद पता ही न चला कि कहां गई वो अनिष्टकारी चुप। अब वहां आवाज़ थी शब्द-दर-शब्द...गूंज-दर-गूंज। आदिम बोल सच था और वो चुप टूट जाने वाला झूठ। उसकी अगवानी नहीं की गई थी तो विदा करने की जरू़रत भी नहीं पड़ी। पराजित कौन हुआ था....इस बहस से दूर स्त्री और पुरुष की चिंता अब उन अफ़वाहों पर थी जो पंख लगाए घूमतीं और कहतीं पतेदार प्रेम लापता हो गया....या फिर वे एक दूसरे के लिए बने होने के सच को भूल चुके हैं....।

पुरुष उसे समझाता- कुछ नहीं है ये सब.... सच सिर्फ़ हमारा एक दूसरे के पास होना है... सच सिर्फ वो तिल है जो इतनी दूर जाने पर भी अपनी जगह कायम रहा...सच आंख का वो गीलापन है जो सूख नहीं सका........सच सिर्फ़ वो आवाज़ है जिसे सुनकर मैं चुप नही रह सका...।
स्त्री उसकी बात मान लेती और सोचने लगती- अफ़वाहें भी चार दिन की हैं जैसे चुप की उम्र थोड़ी थी... राहत की एक नरम सांस उसे छूती और वह आंख बंद करके इस बात पर विश्वास करने लगती कि आज इस पल जो है वही सच है।

इस बात पर शुक्र मनाया जा सकता था कि आंख में बचे घर वाला दरवाजा़ न अंदर से बंद किया जा सका और न ही बाहर से उसपर ताला डाला गया... वहां रहने वाले वे दोनों अपनी शक्ल साफ़-साफ़ देखते हुए इस बात की तसल्ली कर सकते थे कि वहां कोई और कभी था ही नहीं। पुरुष टकटकी लगाकर उस माथे की तरफ़ देखते हुए एक बार फिर कहता चाहता था... यही है सृष्टि का सबसे सुंदर माथा....। यहीं वो सूर्य के डूब जाने और फिर से उग आने का रहस्य खोजता रहा है... लेकिन इससे पहले ही उधर से सवाल आ जाता- बताओ तो कितना सुंदर.... पुरुष के पास हमेशा से वो जवाब साबुत था सो झट से कहा- बहुत सुंदर... सवाल और मुखर होता....बहुत ? तब वो कहता- बहुत मतलब बहुत, फिर से मत पूछना। एक संगीत झन से बजता....शायद आत्मा का ही, ये शब्दों का अपव्यय नहीं था, बल्कि पूरा और कारगर इस्तेमाल कहा गया इसे।

युगों के बाद उस रात वे एक बार फिर अपने आंगन में हरा पौधा लगाने की बात करते-करते सो गए थे....। दूर गए क़दम लौटे थे या फिर सौभाग्य का वह सनातन चिन्ह जो उस माथे पर दोबारा उसी रात नज़र आया था....।

Wednesday, 17 September 2008

चुप के बियाबान में आवाज़ का बूटा

टूटी पलक को यूं ही ज़मीन पर गिरने नहीं दिया जाता... रोक लिया जाता है गाल पर ही। उल्टी हथेली पर रख, आंख बंद करके एक दुआ मांगी जाती है और कभी किसी को बताया नहीं जाता कि मांगा क्या गया। लेकिन वे तो अपनी सारी दुआएं मिलकर ही मांगा करते थे, इसलिए एक दूसरे को न कह सकने की बात बीच में आ ही नहीं सकती थी। दुआ का विधान अपनी जगह क़ायम था और क़ुदरत ने इस बात को चाहते-न चाहते मान ही लिया था कि उन दोनो से कभी कोई एक दुआ दो हिस्सों में बंटकर उस तक नहीं आने वाली। इसीलिए उसकी बही में उनके नाम के आगे लिख दिया गया था- 'उनमें से जब भी कोई अकेले दुआ मांगेगा, तो वह आसमान और ज़मीन के बीच लटकी रह जाएगी। न पूरी होगी और न ही उसके पूरे न होने की ख़बर वापस उन तक भेजी जाएगी।' लेकिन इस बात को भूले बिना ही उन्होंने अलग-अलग दुआ मांगना शुरू कर दिया। दरअसल दुआएं भी बदल गई थीं। स्त्री चुप के टूट जाने की दुआ मांगती और पुरुष उस चुप को सहन कर सकने की शक्ति मांगता, सब्र मांगता.... जबकि दुआएं थीं कि उनके भूल जाने को सज़ा देती हुई ज़मीन और आसमान के बीच किसी बादल के सफ़ेद केशों में बरसों पुराने किसी गुलाब की तरह अटकी रहती.

अधर में वह चुप भी थी, जो उनके होठों के भीतर सिसक की गूंज बनकर रहती थी। कोहराम और चीख़-पुकार अब बाहर नहीं, अंदर ही घुटते थे। जिससे कभी-कभी ख़ुद उनके ही कान फटने लगते। उन्होंने अपने अंदर एकांत बो लिया था, ऐसा एकांत जो रात-दिन फैलता और उन्हें अकेला करता जाता। उतना ही अकेला जितना वह चांद था जो चुपचाप उनकी चुप्पी को देख रहा था। बिना आवाज़ के वो उन दोनों को समझा देना चाहता था कि अकेलेपन के पौधे को खाद-पानी मत दो, क्योंकि एक बार वह ख़ुद ऐसा करके आज तक अकेले रहने को अभिशप्त है। अकेलेपन को उससे ज़्यादा कोई नहीं जानता था। वे दोनों चांद की बात समझ रहे थे, लेकिन शायद वे भी अभिशप्त थे उस चुप और अकेलेपन को जीने के लिए, जिसमें हरपल गुज़र रहा था उनका।

उनके बीच की दूरी कितनी थी... जनम भर दौड़ते रहो तो भी पार न पा सको, और एक हल्की सी सरग़ोशी को जिंदा कर दो, तो एक झटके में ख़त्म हो जाए...। जितनी क़ुरबत... उतना ही फ़ासला। वे एक दूसरे की तरफ़ देखना भी चाहते, तो वहां कुछ न दिखता... सिवाय एक बिंदी के...। बिंदी अक्सर काली होती, कभी-कभार नारंगी और हरी भी। स्त्री काली बिंदी को अपशकुन मानती थी... पुरुष हर रंग की बिंदी के फलसफे पर किताब लिख सकता था। स्‍पर्श की अनिवार्यता के सिद्धांत को पूरी तरह ख़ारिज करते हुए कुछ नया रचने की सोची थी। उनके बीच पांव फैलाकर निरदंद पसरे अकेलेपन को घुड़ककर भगा देने का पूरा साहस रखते हुए भी उसने पक्ष लिया था उसी का। ऐसा लगता था यहां कोई दुआ कभी काम नहीं आएगी।

वहां ज़रूरत थी एक आवाज़ की, जो अकेलेपन को निगल जाए, एक दुआ की, जो दो हिस्सों में नहीं, एक सुर में साबुत आसमान तक जाए, एक ईमानदार दुआ की, जो अधर में लटकी बाक़ी दुआओं से नज़रें बचाते हुए न चले, बल्कि पूरी सच्चाई से क़ुदरत तक पहुंच सके...

चुप के बियाबान में आवाज़ का बूटा रोप भी दें, तो सुबहोशाम उसे पानी कौन देगा? अनमनी उदारता के किसी क्षण में ईश्‍वर ने अगर अधर में लटकी दुआ को ज़मीन पर जाने का हुक्‍म भी दे दिया, तो तारे की तरह टूटकर गिरती उस दुआ को हथेलियां फैलाकर लोकेगा कौन?

Monday, 18 August 2008

चुप की रस्‍सी के दो किनारे...अबोल,अडोल

कुछ बदल गया था। वो अपने चेहरे पर उंगलियां फिराकर देखता- आंख, नाक, माथा, भंवें, कान....सब तो अपनी जगह हैं। उसे विश्‍वास न आता, तो देर तक स्‍त्री की आंखों में देखता और खु़द से ही कहता-क्‍या बदला है, सब पहले जैसा ही तो है......। हां सब पहले जैसा ही है, वो खुद को समझा देता।  सहमी हुई स्‍त्री उलाहना देती तो वह कह देता-दिख रहा है न हाथ्‍ा का तिल और आंख की गीली कोर....सब वैसा ही है, पहले जैसा। कुछ नहीं बदला। ये कहते हुए अक्‍सर उसकी आवाज़ कांप जाती-उसके अंदर भी कुछ दरक रहा था एक अंदेशे से। वह सबकुछ बदल जाने से पहले ही उसे रोक देना चाहता था। लेकिन बदलाव चुपचाप आया था, बिना किसी को बताए। पुरुष घर का मुखिया था, सो आने की खबर पहले उसे ही लगी। और इसके बाद वह चुप हो गया, बिलकुल चुप। जबकि स्‍त्री अपने शोर में मगन थी पहले की तरह, इस उम्‍मीद पर कि उसने जो कहा है वही सच है।
एक की चुप और दूसरे का शोर.... उनके बीच ख़ूब बजता। देर रात ज्‍़यादा ज़ोर से बजता। कभी-कभी इतनी ज़ोर से कि आवाज़ धरती तक जाती और दुनियावाले ज़लज़ले की आशंका से डर जाते। चुप एक रेशा था जिसे बुन-बुनकर पुरुष ने मोटी रस्‍सी जैसा बना दिया था। एक दिन शोर से तंग आकर उसने रस्‍सी का एक सिरा स्‍त्री के हाथ में थमाया और दूसरा खु़द पकड़कर दूर होता चला गया। वो चुप रहना चाहता था, उन आवाज़ों से दूर होना चाहता था जो उसे उनके राख हो चुके घर की याद दिलातीं। अनसुना करना चाहता था उस सारी गूंज को जो उनके बोलते, मुस्‍कुराते, चहकते सपनों की थी। चुप कर देना चाहता था हर उस पुकार को जो इधर से उधर दौड़ते हुए उन्‍हें हर तरफ़ से जल्‍दी घर तैयार करने की याद दिलाती। चुप उसकी शरणस्‍थली थी। 
 चुप की रस्‍सी लोहे से ज्‍़यादा सख्त़ और कांटों से ज्‍़यादा कटीली थी। स्‍त्री उसपर जब-जब अपने महीन, मुलायम और और रुई से हल्‍के बोल सजाना चाहती, वे रस्‍सी को छूते ही जख्‍़मी हो जाते और गिर पड़ते। फिर वो हज़ार शोर करती और बदसूरत, कठोर, मोटे शब्‍द खोज-खोजकर चढ़ा देती चुप की उसी रस्‍सी पर। शब्‍द इतनी रफ़तार से दूसरे सिरे तक जाते कि वो हैरान देखती रह जाती। हर बार सोचती कि मेरे मीठे बोल   क्‍यों नहीं चढ़ पाते इस तरह.....। उसके प्‍यारे शब्‍द फूट-फूट कर रो उठते और उन्‍हें रोता देख सारे कठोर शब्‍द क़हक़हे लगाते। क्‍यों जीत रहे थे वे शब्‍द......?
रस्‍सी हर दिन तनती जा रही थी। इसे जिस दिन पहली बार पुरुष ने अपने हाथ में लिया था, उसी दिन उसे वो हाथ छुड़ाना पड़ा था, जिसे वो सोते समय भी नहीं छोड़ता था। पहला अपशकुन यही था। स्‍त्री चाहती थी कि पुरुष इस चुप का साथ छोड़ दे, उसका हाथ फिर से थाम ले और आकर उससे बात करे अपने घर की, उन सारे हरे पौधों की जो उनके आंगन में लगने वाले थे...उन तस्‍वीरों की जिनके रंग घुले रह गए थे दीवारों पर सजने से पहले ही। वो उसके साथ दोहराए वो सारे गीत, जो वे हज़ारों बरस से गाते आ रहे थे। लेकिन वो चुप ही रहता। अपने में गुम और इतना बेपरवाह की कई-कई दिन उसे याद भी न रहता कि इस तनी हुई रस्‍सी को थामे-थामे स्त्री के कोमल हाथ जख्‍़मी हो चुके हैं। वो उसकी तरफ़ ही नहीं उस दिशा में भी देखना भूलने लगा था जिसमें स्‍त्री देखती थी। इससे पहले वे हमेशा एक ही दिशा में एक ही चीज़ को एक ही नज़र से देर तक देखा करते थे। अब वे अपनी-अपनी नज़र से वही देखते जो देखना चाहते थे। एक चुप इतनी भारी थी  कि उसने उन दोनों के सारे बोलते सपनों की ज़बान पर पत्‍थर रख दिया था। वे गूंगे सपने लिए चुप खड़े थे रात-दिन......न जाने किस इंतजार में।  उन्‍हें लगता जैसे वे चुप्‍पी के एक डरावने सपने में बंदी हैं। वे इसमें घुस तो गए, लेकिन बाहर निकलने का रास्‍ता उन्‍हें सूझता नहीं......। 
क्‍या है,  इस डरावने सपने को तोड़कर बाहर निकल आने की कोई राह... ?

नोट- यह पोस्‍ट रविवार को पोस्‍ट होने के  कुछ देर किन्‍हीं कारणों से दिख नहीं सकी। पुन: पोस्‍ट कर रही हूं, असुविधा के लिए क्षमा करें। ख़ास तौर पर पारुल और डॉ. बेजी से माफ़ी, क्‍योंकि उनके  भेजे गए कमेंट भी यहां  दिख नहीं पा रहे हैं।