एक दिन पुरुष ने क़हक़हा लगाया।
कहते हैं कि संप्रेषणीयता का नियम होता है कि जो जैसे कहा जाए, वैसे ही सुना जाए और समझा भी जाए। इस मामले में पुरुष की संप्रेषणीयता कमज़ोर थी। वह अपना क़हक़हा ख़ुद नहीं समझ पाता था। उसे लगता था कि उसने क़हक़हा लगाया है, लेकिन ख़ुद उसे वह किसी दारुण रुदन की तरह सुनाई देता था।
जब पहली बार स्त्री ने उसका क़हक़हा सुना, तो वह चौंक गई। उसने पूछना चाहा कि तुम किस बात पर यूं हंस रहे हो, पर यहीं पर पता चला कि स्त्री भी संप्रेषणीय नहीं रह पाई थी। वह मुंह खोलती थी और ध्वनि अपनी श्रव्यता खो देती थी। उसकी ज़ुबान पर एक जोड़ी कान रहते थे, वे ख़ुद उसका पूछना सुन लेते थे लेकिन पुरुष उसे सवाल की तरह नहीं सुन पाया था। उसने सवाल को एक फूंक की तरह सुना और अपने क़हक़हे के अर्थों में इस तरह खो गया, जैसे किसी ज़माने में एक राजा, एक ऋषिकन्या को दी गई अंगूठी के खोने में रहता था।
इस तरह देखा जाए, तो जैसे अंगूठी खो गई थी और अंगूठी के खोने से दो लोगों के बीच का प्रेम पतेदार रहते हुए भी लापता हो गया था, उसी तरह क़हक़हे लगाता एक पुरुष, क़हक़हे का अर्थ खो जाने से ख़ुद भी खो गया था।
उन दिनों हवा सचमुच बेहद मेहरबान थी और ईमानदारी से कहे गए शब्दों को ठीक उनके मूल स्वरूप में ही यहां से वहां बहाकर ले जाती थी। उन दिनों बारिश भी बहुत ईमानदार थी और आसमान से दूब तक के अपने सफ़र के दरमियान आए शब्दों को कभी इस तरह नहीं घिसती थी कि वे घिसे हुए शब्दों की अभिशप्त पहचान के साथ जीवित रहें।
तो बहती हुई हवा पुरुष के उस क़हक़हे को बहाकर ले गई और बहुत सारे दूसरे अदृश्य लोग, जो उनके हवाघर के आसपास ही रहते थे, वे हवा से बने हुए दरवाज़ों पर दस्तक देने लगे। उस स्त्री ने हवा से बनी कुंडी हटाकर हवा से बना दरवाज़ा खोला, तो उन अदृश्य लोगों ने उससे पूछा कि पुरुष इतने ज़ोर-ज़ोर से क्यों भला रो रहा है?
उसने कहा कि नहीं, पुरुष तो क़हक़हे लगा रहा है, लेकिन उसकी यह बात भी संप्रेषणीय नहीं रही। अदृश्य लोगों ने अपने अदृश्य कानों से उसे भी फूंक की आवाज़ की तरह सुना और वे डर गए कि स्त्री फूंक कर टोना कर देती है। वे रोष में आ गए और स्त्री के बाल पकड़कर उसे टोनहिन कहते हुए पीटना चाहते थे।
पुरुष अपने क़हक़हों में मुब्तिला था और दरवाज़े पर खड़ी स्त्री अदृश्य इरादों से कांप रही थी। इतने में किसी अदृश्य हाथ ने कमर के नीचे तक लहराने वाले बालों को पकड़ उसे घसीटा। उसने डरकर जो चीख़ मारी, वह भी एक फूंक में बदल गई। उस स्त्री की हर आवाज़ फूंक में बदल जाती। वह संप्रेषणीयता के नियम की तानाशाही थी। वांछित था कि हर शब्द को उसी के अर्थों में समझा जाए। न थोड़ा दाएं, न थोड़ा बाएं। संप्रेषणीयता के नियम की बही में स्त्री के आगे अंग्रेज़ी में एफ़ लिखा गया था, जिसका फुल फॉर्म फ़ीमेल नहीं, फ़ेल संप्रेषित होना चाहिए।
स्त्री द्वार पर आंत दाब कर रोती रही और उसके रोने की आवाज़ फूंक की आवाज़ सी सुनाई दे रही थी।
अचानक उसे पुकारता हुआ पुरुष द्वार पर आया। वह अंगूठी के खोने पर फि़क्र जता रहा था और उसके खोने में उन दोनों के खोने को रोक देना चाहता था।
क़हक़हे की आवाज़ अब रुदन की आवाज़ के रूप में संप्रेषित हो रही थी।
Wednesday, 30 July 2008
Friday, 25 July 2008
छत नहीं थी, छत की ख़ाली जगह बची थी
- तुम्हारी भाषा में गाल को क्या कहते हैं?
- गाल को? हम्म्म्... होंठ कहते हैं।
- तो फिर आंख को नाक कहते होंगे?
- नहीं जी, आंख को तो घर कहते हैं।
- अच्छा?
- हां जी। आंख में रहा जाता है। सपना बनकर, आंसू बनकर, बादल बनकर... और किरकिरी बनकर।
- और घर का दरवाज़ा? जो कभी वह बंद हो गया तो?
- जो बाहर से बंद हो गया, तो समझो, भीतर वाले कहीं और रहने चले गए।
- और भीतर से बंद हो गया तो?
- तो समझो, भीतर वालों को अब कहीं नहीं जाना, कभी भी। बंद दरवाज़े के भीतर वे हमेशा साथ-साथ रहने वाले हैं।
- आंख के भीतर दीवार रहती है?
- दीवार में एक खिड़की भी रहती है।
- खिड़की से कौन झांकता है?
- वह हवा, जो दीवार के उस पार रहती है।
- वह हवा वहां से हट गई तो?
- उस हवा की ख़ाली जगह वहां से कभी न हटेगी।
- ख़ाली जगह इंतज़ार करती रहेगी।
- इंतज़ार क्या है? एक बारिश ही तो है।
- और बारिश ईमानदार न हुई तो?
- तो वह एक पेड़ बन जाएगी, जिस पर कभी सचमुच की बारिश न हुई हो। जो एक बड़ा छत जैसा सिर लिए निपट अंधेरे में ख़ुद पर शाप की तरह बरसती गरमी झेलेगा।
- हवा से उसका काम न चलेगा?
- हवा तो कब की हट चुकी होगी।
- तो उसका क्या होगा, जिसका घर हवा में है?
- वे बेदरो-दीवार सा एक घर बनाएंगे, जहां कोई हमसाया न होगा, पासबां भी नहीं होगा।
- हवा तो उसमें भी चाहिए होगी?
- हम्म... मैं एक फूंक मारूंगा, जिससे तेरे कानों के बूंदें हिलेंगे और उस हवा से और हवा बन जाएगी।
स्त्री ने अपने कान को उंगली से स्पर्श किया। जैसे ट्रॉय की हेलेन ने छुआ था। जैसे एक पुच्छल तारे ने चांद को छुआ था और दुखी होकर अपने बदन से रोशनी छीलकर फेंक दी थी। जैसे लाजवंती घास ने बग़ल से गुज़रती चुन्नी को छुआ था और हमेशा के लिए अपनी सकुचाहट में खो गई थी।
स्त्री ने जाने कब से बूंदे नहीं पहने थे।
और उसके बाद वह चुप हो गया। स्त्री चीज़ों को जोड़कर रखना चाहती थी, पुरुष किसी नए इतिहास के लेखन के लिए बार-बार क़लम की निब घिस रहा था।
स्त्री ने पूछा- हमारे घर की छत कहां गई?
- किसी थके हुए फेफड़े को दान कर दी। वह सांस ले-लेकर थक चुके थे। छत की हवा किसी को जीवन दे रही है।
स्त्री सीढ़ी चढ़ते हुए हांफ रही थी और छत के बाद बची हुई, छत की ख़ाली जगह को देख रही थी।
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