Tuesday, 27 January 2009

...तो ये जनम ज़ाया हो जाता

कई मुहूर्त हवा का द्वार खटखटा कर चले गए...कई मौसम अपनी गुमशुदगी के अभिशाप को तोड़ देने की गुज़ारिश करते-करते रह गए ..कई सदियां गुज़र गई थीं....पुरुष को पथराए हुए। न जाने कब से स्‍त्री उसकी ओर एकटक देख रही थी बिना थके....बिना रुके...बिना यह कहे कि वो दिन भी आ-आकर लौटते हुए थकने लगा है जिसमें गुंथा हुआ एक ख़ास पल उनके दुख-सुख हर लेने के लिए अब भी आया करता है। वह उस पल में प्रवेश करने का इंतज़ार कर रही थी जबकि पुरुष की भुलभुलैया कुछ और थी !  .वह खोया था अपनी ही हथेलियों पर बिछे अनिश्‍चय के जाल में...जिसमें खिंची एक नई रेखा बार-बार उसके विश्‍वास को हिला रही थी....भरी आंखों से उसे अक्‍सर अब वो तिल धुंधला नज़र आता था जो स्‍त्री की हथेली के तिल का जुड़वां था..।

 कौन था...जो जान सकता था इस प्रेम के रहस्‍य को...और कौन था जो साक्षी बनकर बता सकता कि उन दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया गया है....सिवाय उस पल के जिससे पुरुष बेपरवाह हो चला था....। असंख्‍य अंधेरों को कूटकर रची गई एक अमावस की रात पुरुष ने सहमकर स्‍त्री से कहा-पता है, तुम्‍हारा साथ न मिलता तो क्‍या होता.....स्‍त्री की आंखें हमेशा की तरह उस आवाज़ को सोख लेने के लिए  सूखी  थीं..पूछ बैठी... क्‍या होता...? पुरुष ने हथेली में उग आई नई लकीर को टटोला और कहा-साथ न मिलता तो तुम्‍हारे‍ बिना ये जनम ज़ाया हो जाता....। सवांद अधूरा था... लेकिन पूरा होने से कहीं ज्‍़यादा अर्थपूर्ण और इतना पवित्र कि इसे सुन रहा वह पल अपने उस फै़सले को स्‍थगित कर बैठा जिसमें आगे से कभी उन दोनों तक आकर द्वार न खटखटाने का संकल्‍प था...। वो पल एक बार फिर लौट चला था लेकिन नाउम्‍मीद होकर नहीं... बल्कि आश्‍ वस्‍त होकर फिर से आने के लिए। जाते हुए उसने सबसे काली अमावस की दवात में एक उंगली डुबोकर उनके माथे पर एक टीका लगा दिया यह सोचकर,  कि अब कभी इस प्रेम को कोई काली नज़र न छू सकेगी....।

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उन्‍हें जाने दो
एक के बाद एक
सूर्य, तारे
विपुल प्रथ्‍वी,
सयाना आकाश,
अबोध फूल।

मुझे रहने दो
अपने अंधरे शून्‍य में
अपने शब्‍दों के मौन में,
अपने होने की निराशा में।

मुझे रहने दो उपस्थित
आखि़री अनुपस्थिति में।
                         
अशोक वाजपेयी