ऐसा हमेशा से होता आ रहा था। महीने में एक ख़ास दिन, ख़ास वक़्त पर वे अपने सारे दुख-दर्द भूल जाते, इस दिन सूरज-चांद अपने पांव मोड़कर सुस्ताने बैठ जाते और सातवें आसमान से ज़रा ऊपर, बेघर भटक रहे वे दोनों नीम अंधेरा देखकर ज़मीन की ज़द तक आ जाया करते थे। सबसे चमकीला तारा उठाकर पुरुष, स्त्री के माथे पर टांक दिया करता और सबसे गाढ़े बादल का सुरमा उसकी आंख में खुद लगा देता था। इस दिन का इंतजार वे पूरे महीने करते थे। पुरुष के बाएं कंधे पर घंटों सिर टिकाए बैठी रहती स्त्री को देर तक अपनी मांग में गीलापन महसूस होता जो पुरुष की आंखों से रिसकर वहां तक पहुंचता था। इन पलों में प्रवेश करने से पहले वे सारे दुख और पीड़ा को आसमान की सबसे ऊंची अलगनी पर टांग देते थे और गाली कभी इस वक्त उनके बीच आने का दुस्साहस न कर पाती।इसी रात ज़मीन पर भी उत्सव मनाया जाता। किसी को पता नहीं था कि इसकी शुरुआत कैसे और कब हुई लेकिन किंवतंदियों से पता चला था कि जब सूरज और चांद थककर सांस लेने बैठें और आकाश का सबसे चमकीला तारा अपनी जगह पर न दिखे तो, देर रात तक घरों से बाहर निकलकर लोगों को नाचते-गाते प्रार्थना-गीत गाने चाहिए। धरती के हरी-भरी और प्रेम से परिपूर्ण रहने की दुआ इस रात कुबूल की जाती है, ऐसा कहा करते थे बुजुर्ग। दुनिया को ज़रूरत थी प्रेम के एक प्रतीक की, जो इन दुआओं के जरिए ही धरती तक उतरने वाला था। नाचते-गाते लोगों की दुआ जब भी उनके पास से होकर गुज़रती, उनके हाथों की पकड़ और कड़ी हो जाया करती। इस पकड़ पर बहुत विश्वास था उन्हें। वे एक दूसरे से पूछते-कहां रहता है विश्वास.... और फिर साथ-साथ दोहराते-हाथ की इस पकड़ में, हथेली के तिल में, आंख की गीली कोरों में और......... और आत्मा में छिपी उस आधी बूंद में। पर, बूंद तो दिखती नहीं, आत्मा तो बेशक्ल है, पहचानेंगे कैसे, एक के शुबहे को दूजा हमेशा ये कहकर शांत किया करता-आंख की गीली कोर तो दिखती है न....हथेली का तिल भी, कैसे भूल जाएंगे फिर........। इससे ज्यादा सवाल-जवाब की गुंजाइश उनके बीच कभी बनी ही नहीं।
उनका विश्वास अटल था लेकिन इधर गाली ने अपना कुनबा बढ़ा लिया था। उसे अब अपने रहने के लिए ज्यादा जगह चाहिए थी। इतनी- कि कभी-कभी उन दोनों के खुले हाथ भी एक दूसरे को छू न पाएं। उसका सबसे क़रीबी नातेदार झूठ था। जैसे गाली ने पुरुष को छला था, झूठ ने स्त्री को बहका लिया था। वे जब भी इनके कहे में आते, हाथों की पकड़ ढीली पड़ जाती और वे दूर होने लगते। पहली बार जब ऐसा हुआ तो वे बेहद डर गए थे। लेकिन इसके बाद जब भी ऐसा होता वे समझ जाते कि कुछ देर दूर रहने का वक़्त आ गया है। वे दोनों साथ रहते लेकिन इस बारे में कभी कुछ न कहते। यहां तक कि उस दूरी के बारे में भी बात न कर पाते जो उनके बीच हर दिन बढ़ रही थी। वे हमेशा एक-दूसरे से कहते कि वे एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और इस विश्वास को सांस की तरह सीने में उतार देते. जिन पलों में सांस रुकी हुई होती, हवा का कोई अता-पता न होता, उन पलों में यही विश्वास नासिका में यात्रा करता, उन्हें हवा का पता बताते हुए. उस हवा का, जहां उन्होंने एक घर बनाया था.
