Monday, 18 August 2008

चुप की रस्‍सी के दो किनारे...अबोल,अडोल

कुछ बदल गया था। वो अपने चेहरे पर उंगलियां फिराकर देखता- आंख, नाक, माथा, भंवें, कान....सब तो अपनी जगह हैं। उसे विश्‍वास न आता, तो देर तक स्‍त्री की आंखों में देखता और खु़द से ही कहता-क्‍या बदला है, सब पहले जैसा ही तो है......। हां सब पहले जैसा ही है, वो खुद को समझा देता।  सहमी हुई स्‍त्री उलाहना देती तो वह कह देता-दिख रहा है न हाथ्‍ा का तिल और आंख की गीली कोर....सब वैसा ही है, पहले जैसा। कुछ नहीं बदला। ये कहते हुए अक्‍सर उसकी आवाज़ कांप जाती-उसके अंदर भी कुछ दरक रहा था एक अंदेशे से। वह सबकुछ बदल जाने से पहले ही उसे रोक देना चाहता था। लेकिन बदलाव चुपचाप आया था, बिना किसी को बताए। पुरुष घर का मुखिया था, सो आने की खबर पहले उसे ही लगी। और इसके बाद वह चुप हो गया, बिलकुल चुप। जबकि स्‍त्री अपने शोर में मगन थी पहले की तरह, इस उम्‍मीद पर कि उसने जो कहा है वही सच है।
एक की चुप और दूसरे का शोर.... उनके बीच ख़ूब बजता। देर रात ज्‍़यादा ज़ोर से बजता। कभी-कभी इतनी ज़ोर से कि आवाज़ धरती तक जाती और दुनियावाले ज़लज़ले की आशंका से डर जाते। चुप एक रेशा था जिसे बुन-बुनकर पुरुष ने मोटी रस्‍सी जैसा बना दिया था। एक दिन शोर से तंग आकर उसने रस्‍सी का एक सिरा स्‍त्री के हाथ में थमाया और दूसरा खु़द पकड़कर दूर होता चला गया। वो चुप रहना चाहता था, उन आवाज़ों से दूर होना चाहता था जो उसे उनके राख हो चुके घर की याद दिलातीं। अनसुना करना चाहता था उस सारी गूंज को जो उनके बोलते, मुस्‍कुराते, चहकते सपनों की थी। चुप कर देना चाहता था हर उस पुकार को जो इधर से उधर दौड़ते हुए उन्‍हें हर तरफ़ से जल्‍दी घर तैयार करने की याद दिलाती। चुप उसकी शरणस्‍थली थी। 
 चुप की रस्‍सी लोहे से ज्‍़यादा सख्त़ और कांटों से ज्‍़यादा कटीली थी। स्‍त्री उसपर जब-जब अपने महीन, मुलायम और और रुई से हल्‍के बोल सजाना चाहती, वे रस्‍सी को छूते ही जख्‍़मी हो जाते और गिर पड़ते। फिर वो हज़ार शोर करती और बदसूरत, कठोर, मोटे शब्‍द खोज-खोजकर चढ़ा देती चुप की उसी रस्‍सी पर। शब्‍द इतनी रफ़तार से दूसरे सिरे तक जाते कि वो हैरान देखती रह जाती। हर बार सोचती कि मेरे मीठे बोल   क्‍यों नहीं चढ़ पाते इस तरह.....। उसके प्‍यारे शब्‍द फूट-फूट कर रो उठते और उन्‍हें रोता देख सारे कठोर शब्‍द क़हक़हे लगाते। क्‍यों जीत रहे थे वे शब्‍द......?
रस्‍सी हर दिन तनती जा रही थी। इसे जिस दिन पहली बार पुरुष ने अपने हाथ में लिया था, उसी दिन उसे वो हाथ छुड़ाना पड़ा था, जिसे वो सोते समय भी नहीं छोड़ता था। पहला अपशकुन यही था। स्‍त्री चाहती थी कि पुरुष इस चुप का साथ छोड़ दे, उसका हाथ फिर से थाम ले और आकर उससे बात करे अपने घर की, उन सारे हरे पौधों की जो उनके आंगन में लगने वाले थे...उन तस्‍वीरों की जिनके रंग घुले रह गए थे दीवारों पर सजने से पहले ही। वो उसके साथ दोहराए वो सारे गीत, जो वे हज़ारों बरस से गाते आ रहे थे। लेकिन वो चुप ही रहता। अपने में गुम और इतना बेपरवाह की कई-कई दिन उसे याद भी न रहता कि इस तनी हुई रस्‍सी को थामे-थामे स्त्री के कोमल हाथ जख्‍़मी हो चुके हैं। वो उसकी तरफ़ ही नहीं उस दिशा में भी देखना भूलने लगा था जिसमें स्‍त्री देखती थी। इससे पहले वे हमेशा एक ही दिशा में एक ही चीज़ को एक ही नज़र से देर तक देखा करते थे। अब वे अपनी-अपनी नज़र से वही देखते जो देखना चाहते थे। एक चुप इतनी भारी थी  कि उसने उन दोनों के सारे बोलते सपनों की ज़बान पर पत्‍थर रख दिया था। वे गूंगे सपने लिए चुप खड़े थे रात-दिन......न जाने किस इंतजार में।  उन्‍हें लगता जैसे वे चुप्‍पी के एक डरावने सपने में बंदी हैं। वे इसमें घुस तो गए, लेकिन बाहर निकलने का रास्‍ता उन्‍हें सूझता नहीं......। 
क्‍या है,  इस डरावने सपने को तोड़कर बाहर निकल आने की कोई राह... ?

नोट- यह पोस्‍ट रविवार को पोस्‍ट होने के  कुछ देर किन्‍हीं कारणों से दिख नहीं सकी। पुन: पोस्‍ट कर रही हूं, असुविधा के लिए क्षमा करें। ख़ास तौर पर पारुल और डॉ. बेजी से माफ़ी, क्‍योंकि उनके  भेजे गए कमेंट भी यहां  दिख नहीं पा रहे हैं। 

21 comments:

बालकिशन said...

अद्भुत लेखन है

anurag vats said...

maheen katne men kai bar baat ka sira fisal jata hai...is gadya ki ek khoobi apne nikat yh bhi maanta hun ki wh dor ya sira padhte hue ant tk kayam rhta hai...uska pravesh hamari samvedna tk hota jata hai...

anurag vats said...

maheen katne men kai bar baat ka sira fisal jata hai...is gadya ki ek khoobi apne nikat yh bhi maanta hun ki wh dor ya sira padhte hue ant tk kayam rhta hai...uska pravesh hamari samvedna tk hota jata hai...

पारुल "पुखराज" said...

jo pehley lubhaati thii vo baad me shor kaisey ban jaati hai???

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा आपको पढ़ना..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आपका लिखा एक अलग सी दुनिया की सैर करवाता है
बहोत अच्छा लिखतीँ हैँ आप!
- लावण्या

azdak said...

मेरा कमेंट भी नहीं दिख रहा. पूरे पोस्‍ट में भी मैं कहीं नहीं दिख रहा उसकी तक़लीफ़ तो अलग से है ही.

Pratyaksha said...

कोई और नया सपना तलाश लें वाली नियति अगर सब की न हो तो ? उसी पुराने सपने को रीसाईकिल करने की जुगत आनी चाहिये..

डॉ .अनुराग said...

मै सोच रहा था की की शायद मेरे ब्लॉग में ही कुछ गडबडी है......आपको पढ़ना हमेशा सुखद है....

admin said...

आपकी लेखनी में एक सरस प्रवाह है। बधाई स्वीकारें।

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत लाजवाब और कुछ सोचने को विवश
करता है आपका लेख ! ज़रा हट कर लगा !
इसलिए और भी सुंदर लगा !
शुभकामनाएं !

Dr. Chandra Kumar Jain said...

शायदा जी,
कहकहे से रुदन तक और
रुदन से अबोल-अडोल ख़ामोशी तक
आपकी बेजोड़ कल्पनाशीलता से
ज़मीनी और ज़हनी सच्चाई का
कुछ इस तरह बयां कर रहा है ये किस्सा
कि परत-दर-परत खुलती जा रही है
रेशे के रस्सी बनने और
रहिमन-धागा के
यक-ब-यक चिटक जाने का सबब !
ये जुदा बात है यहाँ चुप का शोर तो
ज़ोर से बोल रहा है किंतु शोर की चुप्पी के
अनचीन्हे दर्द का अनावरण होना अभी बाक़ी है !
===================================
आपकी सोच से, सच को साँचे से निकालकर
साँचों के सच को समझने का
नया संबल मिल रहा है.
शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अनुरोध......
आपने 'परत-दर-परत खुलती जा रही है'....
इस अंश को 'परत-दर-परत खुलता जा रहा है'
पढ़िये...त्रुटि रह गई...मुझे खेद है.
=================================
डा.चन्द्रकुमार जैन

shelley said...

bahut gahara likha hai aapne. ye rachna aakpe chintan ka dayare se parichit karati hai. aapki gahrai ka v ahasas karati hai. badhi

vijaymaudgill said...

जय श्री राम
काफ़ी दिन हो गए थे, कुछ पढ़े हुए। समय नहीं लग रहा था। लेकिन आज की शुरुआत आपके लेखों को पढ़कर ही की।
वैसे एक बात कहना चाहता हूं कि बाकी किसी का लिखा मैं समझ पाऊं या नहीं, ये तो मुझे पता नहीं, लेकिन आपका लिखा मैं शत-प्रतिशत समझ पाता हूं कि आप क्या कह रही हैं, क्यों कह रही हैं, कैसा कह रही हैं। पता नहीं क्यों इतना गहरा होने के बावजूद भी समझ जाता हूं। इतने अच्छे लेख को पढ़ाने के लिए शुक्रिया।

Arun Aditya said...

चुप एक रेसा था जिसे बुन-बुन कर आदमी ने मोटी रस्सी बना दिया था।
तुम्हारा शब्द-शिल्प और बिम्ब-विधान तुम्हारे गद्य को कविता के करीब ले जाता है। शुभ कामनाएं।

सुभाष नीरव said...

शायदा जी, आपकी हर नई पोस्ट पढ़कर मुख से "वाह!" के सिवा और कुछ नहीं निकलता। बहुत खूब लिखती हैं आप।

Anonymous said...

Good good good......

Mrinal said...

आपको लगातार पढ़ती हूं. जितनी समृद्ध आपकी भाषा है, वह चौंकाती है.

شہروز said...

आप के रचनात्मक प्रयास के हम कायल हुए.
जोर-कलम और ज्यादा.
कभी फ़ुर्सत मिले तो इस तरफ भी ज़रूर आयें.
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/

डा. अमर कुमार said...

.

शायदा को पढ़ना अपने आप में... एक$ $$ अरे रुकिये भाई, ये जो गुड गर्ल हैं... कुछ ज़्यादा ही गुड तो नहीं हों रहीं हैं ?
मुझ ग़रीब को भटका दिया.. क्या कहना चाह रहा था.. अब शब्दों को समेट लूँ, फिर आता हूँ..
एक लंबीईईई..ई ई ई साँस लेने के बाद ..