कई मुहूर्त हवा का द्वार खटखटा कर चले गए...कई मौसम अपनी गुमशुदगी के अभिशाप को तोड़ देने की गुज़ारिश करते-करते रह गए ..कई सदियां गुज़र गई थीं....पुरुष को पथराए हुए। न जाने कब से स्त्री उसकी ओर एकटक देख रही थी बिना थके....बिना रुके...बिना यह कहे कि वो दिन भी आ-आकर लौटते हुए थकने लगा है जिसमें गुंथा हुआ एक ख़ास पल उनके दुख-सुख हर लेने के लिए अब भी आया करता है। वह उस पल में प्रवेश करने का इंतज़ार कर रही थी जबकि पुरुष की भुलभुलैया कुछ और थी ! .वह खोया था अपनी ही हथेलियों पर बिछे अनिश्चय के जाल में...जिसमें खिंची एक नई रेखा बार-बार उसके विश्वास को हिला रही थी....भरी आंखों से उसे अक्सर अब वो तिल धुंधला नज़र आता था जो स्त्री की हथेली के तिल का जुड़वां था..।
कौन था...जो जान सकता था इस प्रेम के रहस्य को...और कौन था जो साक्षी बनकर बता सकता कि उन दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया गया है....सिवाय उस पल के जिससे पुरुष बेपरवाह हो चला था....। असंख्य अंधेरों को कूटकर रची गई एक अमावस की रात पुरुष ने सहमकर स्त्री से कहा-पता है, तुम्हारा साथ न मिलता तो क्या होता.....स्त्री की आंखें हमेशा की तरह उस आवाज़ को सोख लेने के लिए सूखी थीं..पूछ बैठी... क्या होता...? पुरुष ने हथेली में उग आई नई लकीर को टटोला और कहा-साथ न मिलता तो तुम्हारे बिना ये जनम ज़ाया हो जाता....। सवांद अधूरा था... लेकिन पूरा होने से कहीं ज़्यादा अर्थपूर्ण और इतना पवित्र कि इसे सुन रहा वह पल अपने उस फै़सले को स्थगित कर बैठा जिसमें आगे से कभी उन दोनों तक आकर द्वार न खटखटाने का संकल्प था...। वो पल एक बार फिर लौट चला था लेकिन नाउम्मीद होकर नहीं... बल्कि आश् वस्त होकर फिर से आने के लिए। जाते हुए उसने सबसे काली अमावस की दवात में एक उंगली डुबोकर उनके माथे पर एक टीका लगा दिया यह सोचकर, कि अब कभी इस प्रेम को कोई काली नज़र न छू सकेगी....।
कौन था...जो जान सकता था इस प्रेम के रहस्य को...और कौन था जो साक्षी बनकर बता सकता कि उन दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया गया है....सिवाय उस पल के जिससे पुरुष बेपरवाह हो चला था....। असंख्य अंधेरों को कूटकर रची गई एक अमावस की रात पुरुष ने सहमकर स्त्री से कहा-पता है, तुम्हारा साथ न मिलता तो क्या होता.....स्त्री की आंखें हमेशा की तरह उस आवाज़ को सोख लेने के लिए सूखी थीं..पूछ बैठी... क्या होता...? पुरुष ने हथेली में उग आई नई लकीर को टटोला और कहा-साथ न मिलता तो तुम्हारे बिना ये जनम ज़ाया हो जाता....। सवांद अधूरा था... लेकिन पूरा होने से कहीं ज़्यादा अर्थपूर्ण और इतना पवित्र कि इसे सुन रहा वह पल अपने उस फै़सले को स्थगित कर बैठा जिसमें आगे से कभी उन दोनों तक आकर द्वार न खटखटाने का संकल्प था...। वो पल एक बार फिर लौट चला था लेकिन नाउम्मीद होकर नहीं... बल्कि आश् वस्त होकर फिर से आने के लिए। जाते हुए उसने सबसे काली अमावस की दवात में एक उंगली डुबोकर उनके माथे पर एक टीका लगा दिया यह सोचकर, कि अब कभी इस प्रेम को कोई काली नज़र न छू सकेगी....।
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उन्हें जाने दो
एक के बाद एक
सूर्य, तारे
विपुल प्रथ्वी,
सयाना आकाश,
अबोध फूल।
मुझे रहने दो
अपने अंधरे शून्य में
अपने शब्दों के मौन में,
अपने होने की निराशा में।
मुझे रहने दो उपस्थित
आखि़री अनुपस्थिति में।
अशोक वाजपेयी
22 comments:
अशोक बाजपेयी जी की रचना और आपका पद्यात्मक गद्य. बहुत सुन्दर. बधाई इस प्रस्तुति के लिए. बहुत बातें कह गया कहीं गहरे में.
आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
शब्दों का सुंदर प्रयोग,भावों को और विस्तार देता.अशोक वाजपेयी की कविता इन्ही संवेदनाओं को और पुष्ट करती.
tum tak aanaa kabhi zaya nahi jata SHAYDA
लफ्ज़ भी कभी कभी कोई लिबास पहन लेते है जैसे ........
Waah ! Waah ! sirf Waah !
अद्भुत शब्द और भाव.....वाह...
वह खोया था अपनी ही हथेलियों पर बिछे अनिश्चय के जाल में...जिसमें खिंची एक नई रेखा बार-बार उसके विश्वास को हिला रही थी....भरी आंखों से उसे अक्सर अब वो तिल धुंधला नज़र आता था जो स्त्री की हथेली के तिल का जुड़वां था..।
खासतौर पर पसंद आई आपकी ये पंक्तियाँ !
shabd sirf shabd hote hain aksar, aisi roohani kalam se nikalkar unme jaan aa jati hai, ab in shabdon ki parwarish karne ka sukh sirf shayda ji hi utha sakti hain.
beautifull writing shayda ji, kala teeka laga leejiye...najar na lage...
"...hamaara ghar jiske daro-diwar hawaa se bane hain...."
bs ye parh kar chalaa aaya...
.....aur paaya k ehsaaas, jazbaat,
umdaa alfaaz ka khazaana hai yahaan
mubarakbaad . . . .
---MUFLIS---
भरी आंखों से उसे अक्सर अब वो तिल धुंधला नज़र आता था जो स्त्री की हथेली के तिल का जुड़वां था..। भरी आंखों से उसे अक्सर अब वो तिल धुंधला नज़र आता था जो स्त्री की हथेली के तिल का जुड़वां था..। एक सपने की तरह देखती हूँ तुम्हारी पोस्ट...लगता है ,मेरा सोचा हुआ ,जिया गया है यहाँ ...आमीन
आख़िरी अनुपस्थिति में उपस्थित रह
पाने का साहस देती अनोखी प्रस्तुति.
भाषा आपके हाथों में आश्वस्ति का औजार-सी
बन जाती है.....सच यह मामूली बात नहीं है.
गद्य में कविता का रस छलका रहीं हैं आप निरंतर.
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बधाई उत्कृष्ट लेखन के लिए
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बहुत खूब, अशोक वाजपेयी जी की कविता के लिए भी आभार।
getting a strang feeling while reading...very good..
शायदा आप बहुत सुंदर लिखती हैं, आज पहली बार आपकी यहां आई और बस टिक कर रह गई। सारी पोस्ट पढ डालीं। कहना न होगा कि अब यहां बार-बार आना होगा। बहुत अच्छा लगा यहां आ कर।
सच बताऊँ तो.....शायदा जी की चीज़ों पर कुछ भी लिखना बड़ा मुश्किल है.....कभी-कभी तो लगता है....जिस गहराई में जाकर उन्होंने यह सब लिखा है....और जैसा कि वे लिखती हैं....उसके आस-पास तक भी क्या मैं फाटक पता हूँ.......??तो फिर लिखूं क्या.....!!....पहले थोडी गहराई पा लूँ तब लिखूंगा....!!
बहुत खूबसूरत सोच है।
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S.B.A.
TSALIIM.
बहुत बढ़िया, शायदा!
शायदा जी,
नमस्कार
आपके सारे ब्लाग को मैनें देखा और पढ़ा भी सभी लेखों का कोई जबाब नहीं है ।
आप अपने विचारों के ख्यालों के झूलने से ऐसे ही अवगत कराते रहें अच्छा लगेगा।
आपने मेरे ब्लाग पर कमेन्ट किया उसके लिये शुक्रिया ।
शायदा जी,
नमस्कार
आपके सारे ब्लाग को मैनें देखा और पढ़ा भी सभी लेखों का कोई जबाब नहीं है ।
आप अपने विचारों के ख्यालों के झूलने से ऐसे ही अवगत कराते रहें अच्छा लगेगा।
आपने मेरे ब्लाग पर कमेन्ट किया उसके लिये शुक्रिया ।
सचमुच अरसे बाद कुछ अच्छा पड़ने को मिला है. कई जगह पर तो हृदय भी हिल गया.
Beautiful blog and noble writing,my heartly congrats.
Beautiful pictures with sentiments,wonderful.
But most impressive thing is yr personal profile,very touching and emotional.
It caught me without delay.
With regards,
dr.bhoopendra rewa mp
लेख और कविता दोनो सुंदर पर लेख क्यूं कि आपका है ज्यादा पसंद आया । वह अमावस की रात का पल जो बार बार आने के लिये गया बहुत सुंदर ।
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