Wednesday 18 June, 2008

श्‍वास, विश्‍वास और महीने का एक दिन

ऐसा हमेशा से होता आ रहा था। महीने में एक ख़ास दिन, ख़ास वक़्त पर वे अपने सारे दुख-दर्द भूल जाते, इस दिन सूरज-चांद अपने पांव मोड़कर सुस्ताने बैठ जाते और सातवें आसमान से ज़रा ऊपर, बेघर भटक रहे वे दोनों नीम अंधेरा देखकर ज़मीन की ज़द तक आ जाया करते थे। सबसे चमकीला तारा उठाकर पुरुष, स्त्री के माथे पर टांक दिया करता और सबसे गाढ़े बादल का सुरमा उसकी आंख में खुद लगा देता था। इस दिन का इंतजार वे पूरे महीने करते थे। पुरुष के बाएं कंधे पर घंटों सिर टिकाए बैठी रहती स्त्री को देर तक अपनी मांग में गीलापन महसूस होता जो पुरुष की आंखों से रिसकर वहां तक पहुंचता था। इन पलों में प्रवेश करने से पहले वे सारे दुख और पीड़ा को आसमान की सबसे ऊंची अलगनी पर टांग देते थे और गाली कभी इस वक्त उनके बीच आने का दुस्साहस न कर पाती।

इसी रात ज़मीन पर भी उत्सव मनाया जाता। किसी को पता नहीं था कि इसकी शुरुआत कैसे और कब हुई लेकिन किंवतंदियों से पता चला था कि जब सूरज और चांद थककर सांस लेने बैठें और आकाश का सबसे चमकीला तारा अपनी जगह पर न दिखे तो, देर रात तक घरों से बाहर निकलकर लोगों को नाचते-गाते प्रार्थना-गीत गाने चाहिए। धरती के हरी-भरी और प्रेम से परिपूर्ण रहने की दुआ इस रात कुबूल की जाती है, ऐसा कहा करते थे बुजुर्ग। दुनिया को ज़रूरत थी प्रेम के एक प्रतीक की, जो इन दुआओं के जरिए ही धरती तक उतरने वाला था। नाचते-गाते लोगों की दुआ जब भी उनके पास से होकर गुज़रती, उनके हाथों की पकड़ और कड़ी हो जाया करती। इस पकड़ पर बहुत विश्वास था उन्हें। वे एक दूसरे से पूछते-कहां रहता है विश्वास.... और फिर साथ-साथ दोहराते-हाथ की इस पकड़ में, हथेली के तिल में, आंख की गीली कोरों में और......... और आत्मा में छिपी उस आधी बूंद में। पर, बूंद तो दिखती नहीं, आत्मा तो बेशक्ल है, पहचानेंगे कैसे, एक के शुबहे को दूजा हमेशा ये कहकर शांत किया करता-आंख की गीली कोर तो दिखती है न....हथेली का तिल भी, कैसे भूल जाएंगे फिर........। इससे ज्यादा सवाल-जवाब की गुंजाइश उनके बीच कभी बनी ही नहीं।

उनका विश्वास अटल था लेकिन इधर गाली ने अपना कुनबा बढ़ा लिया था। उसे अब अपने रहने के लिए ज्यादा जगह चाहिए थी। इतनी- कि कभी-कभी उन दोनों के खुले हाथ भी एक दूसरे को छू न पाएं। उसका सबसे क़रीबी नातेदार झूठ था। जैसे गाली ने पुरुष को छला था, झूठ ने स्त्री को बहका लिया था। वे जब भी इनके कहे में आते, हाथों की पकड़ ढीली पड़ जाती और वे दूर होने लगते। पहली बार जब ऐसा हुआ तो वे बेहद डर गए थे। लेकिन इसके बाद जब भी ऐसा होता वे समझ जाते कि कुछ देर दूर रहने का वक़्त आ गया है। वे दोनों साथ रहते लेकिन इस बारे में कभी कुछ न कहते। यहां तक कि उस दूरी के बारे में भी बात न कर पाते जो उनके बीच हर दिन बढ़ रही थी। वे हमेशा एक-दूसरे से कहते कि वे एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और इस विश्‍वास को सांस की तरह सीने में उतार देते. जिन पलों में सांस रुकी हुई होती, हवा का कोई अता-पता न होता, उन पलों में यही विश्‍वास नासिका में यात्रा करता, उन्‍हें हवा का पता बताते हुए. उस हवा का, जहां उन्‍होंने एक घर बनाया था.

Sunday 1 June, 2008

दो की तरह बनाना और तीन की तरह बिखर जाना...

...ईश्वर ने नूर की एक बूंद को आधा-आधा रोपा था उनकी रूह में। इस बूंद के आधेपन की ख़ातिर वे पूरे के पूरे एक-दूसरे में रहने लगे थे। धीरे-धीरे उन्हें पता चला कि वे बने ही एक दूसरे के लिए हैं। बूंद बहुत चमकदार थी, अपनी उजास से उन दोनों के वजूद रोशन रखती। वे अगर कहीं अलग हो जाते तो ये उजास दूर से ही बता देती थी उनके जाने की दिशा। वे ज़्यादा देर, ज़्यादा दूर रह नहीं पाते थे। नूर की बूंद इतनी दुबली थी कि दो फांकों में रहे, तो अंधेरा उसे निगल जाए। और इतनी मज़बूत थी कि कई अंधेरी रातों को मशालों के मुंह में झोंक दे।

लेकिन ये बात उनके बेघर होने से पहले की है। तब हवाघर था और वे दोनों भी थे एक दूसरे में सुख से रहते हुए। ज़मीन से उठी चिंगारियों ने जब से उनका घर जलाया, तब से वे दोनों एक दूसरे में नहीं, एक दूसरे के साथ रहने लगे थे। चिंगारियों के साथ ही एक गाली उछलकर उनके बीच आई थी। एक ने गाली दी थी तो दूसरे ने ले ली थी। मना कर सकने की सारी संभावनाओं के बावजूद लेकर रख लिया था उसे। वो गाली अब वापस जाने का नाम नहीं लेती थी, उनके साथ रहने लगी थी पूरे वज़न और मायनों सहित। उसने उन दोनों के बीच एक जगह बना ली थी अपने रहने के लिए।

जला हुआ घर हवा में तैरता था इस उम्मीद से, कि आज नहीं तो कल उसके काले हो गए फ़र्श को बादल भर बारिश से धो दिया जाएगा, अधजली छत को चांदनी से एकसार कर पाट दिया जाएगा, हवा की खिड़कियां उनकी तरफ़ देखतीं और सोचती कि किस दिन वे दोनों आकर वहां एक गहरी सांस लेंगे और अपनी उसांस से वहां जमी राख को उड़ा देंगे । फिर यहां से झांककर पूरी रात ज़मीन की तरफ़ देखते हुए कुछ बहुत पुराने गीत गाएंगे और सनातन उदासियां वैसे ही उड़ जाएंगी, जैसे भाप बनकर पानी। आसमान के सीने पर होंठ की फांक के निशान की तरह चस्‍पा इंद्रधनुष अक्सर उनसे पूछना चाहता- इस सिरे से उस सिरे तक तैरकर झूलना नहीं है क्या...? वो अपने रंगों को और चटख़ कर लेता कि इस बहाने ही सही वे इधर देखेंगे तो...। लेकिन वे किसी की तरफ़ नहीं देखते थे। क्या हो गया था उन्हें?

सबकी उम्मीद उनपर थी लेकिन वे एक दूसरे से नाउम्मीद हो चुके थे। वे जब भी एक दूसरे की तरफ़ देखने की कोशिश करते, गीली आंखों में गाली आकर बैठ जाती और फिर कुछ कहने की गुंजाइश ही न बचती। वे जब भी एक दूसरे में रहने की कोशिश करते, गाली साथ हो लेती और वे वापस हो जाते। वे दो की तरह उस घर को बनाने के लिए बार-बार दरो-दीवार चुनते और तीन की तरह बिखेर देते। घर किसी तरह बनने में नहीं आ रहा था। उनकी हथेलियों में हज़ार छेद हो गए थे, इसीलिए उनमें कुछ टिकता ही नहीं था।
वे एक दूसरे के साथ नहीं, एक दूसरे में रहना चाहते थे, पहले की तरह। लेकिन वे अब दो इंसानों से ज़्यादा एक स्त्री और एक पुरुष थे। पुरुष उसे हमेशा अपनी बाईं तरफ़ रखता था। हाथ में हाथ डाले वे चुपचाप हवा में तैरते थे, हाथ की पकड़ ऐसी थी कि एक की हथेली के तिल का निशान दूसरे की हथेली में उग आया था। वे अपने घर को बहुत याद करते, और जब भी रोते, तो नमकीन-सी बरसात होती। होती ही रहती। ज़मीन पर रहने वाली दुनिया और साइंसदां किस्‍म के लोग उस बरसात के पानी को पोखरों-तालाबों में जमा करने की जुगतें भिड़ाते, मासूम-से बच्‍चे उस बरसात में पानी-पानी खेलते, सयाने उसके पानी से अपने काम की कोई न कोई फ़सल उगाने लग जाते। कोई बारिश की उस गंगोत्री की तरफ़ झांक कर नहीं देखना चाहता था, जो दो जोड़ी आंखों से बही आ रही है। उल्‍टे, सब किसी न किसी देवता के हाथ जोड़कर कहते कि ये बारिश ऐसे ही होती रहे।

वे दोनों चाहते हैं कि बारिश रुक जाए, पर क्‍या इस बारिश का रुकना दुनिया की दुआ के खि़लाफ़ चला जाएगा?