Sunday 1 June, 2008

दो की तरह बनाना और तीन की तरह बिखर जाना...

...ईश्वर ने नूर की एक बूंद को आधा-आधा रोपा था उनकी रूह में। इस बूंद के आधेपन की ख़ातिर वे पूरे के पूरे एक-दूसरे में रहने लगे थे। धीरे-धीरे उन्हें पता चला कि वे बने ही एक दूसरे के लिए हैं। बूंद बहुत चमकदार थी, अपनी उजास से उन दोनों के वजूद रोशन रखती। वे अगर कहीं अलग हो जाते तो ये उजास दूर से ही बता देती थी उनके जाने की दिशा। वे ज़्यादा देर, ज़्यादा दूर रह नहीं पाते थे। नूर की बूंद इतनी दुबली थी कि दो फांकों में रहे, तो अंधेरा उसे निगल जाए। और इतनी मज़बूत थी कि कई अंधेरी रातों को मशालों के मुंह में झोंक दे।

लेकिन ये बात उनके बेघर होने से पहले की है। तब हवाघर था और वे दोनों भी थे एक दूसरे में सुख से रहते हुए। ज़मीन से उठी चिंगारियों ने जब से उनका घर जलाया, तब से वे दोनों एक दूसरे में नहीं, एक दूसरे के साथ रहने लगे थे। चिंगारियों के साथ ही एक गाली उछलकर उनके बीच आई थी। एक ने गाली दी थी तो दूसरे ने ले ली थी। मना कर सकने की सारी संभावनाओं के बावजूद लेकर रख लिया था उसे। वो गाली अब वापस जाने का नाम नहीं लेती थी, उनके साथ रहने लगी थी पूरे वज़न और मायनों सहित। उसने उन दोनों के बीच एक जगह बना ली थी अपने रहने के लिए।

जला हुआ घर हवा में तैरता था इस उम्मीद से, कि आज नहीं तो कल उसके काले हो गए फ़र्श को बादल भर बारिश से धो दिया जाएगा, अधजली छत को चांदनी से एकसार कर पाट दिया जाएगा, हवा की खिड़कियां उनकी तरफ़ देखतीं और सोचती कि किस दिन वे दोनों आकर वहां एक गहरी सांस लेंगे और अपनी उसांस से वहां जमी राख को उड़ा देंगे । फिर यहां से झांककर पूरी रात ज़मीन की तरफ़ देखते हुए कुछ बहुत पुराने गीत गाएंगे और सनातन उदासियां वैसे ही उड़ जाएंगी, जैसे भाप बनकर पानी। आसमान के सीने पर होंठ की फांक के निशान की तरह चस्‍पा इंद्रधनुष अक्सर उनसे पूछना चाहता- इस सिरे से उस सिरे तक तैरकर झूलना नहीं है क्या...? वो अपने रंगों को और चटख़ कर लेता कि इस बहाने ही सही वे इधर देखेंगे तो...। लेकिन वे किसी की तरफ़ नहीं देखते थे। क्या हो गया था उन्हें?

सबकी उम्मीद उनपर थी लेकिन वे एक दूसरे से नाउम्मीद हो चुके थे। वे जब भी एक दूसरे की तरफ़ देखने की कोशिश करते, गीली आंखों में गाली आकर बैठ जाती और फिर कुछ कहने की गुंजाइश ही न बचती। वे जब भी एक दूसरे में रहने की कोशिश करते, गाली साथ हो लेती और वे वापस हो जाते। वे दो की तरह उस घर को बनाने के लिए बार-बार दरो-दीवार चुनते और तीन की तरह बिखेर देते। घर किसी तरह बनने में नहीं आ रहा था। उनकी हथेलियों में हज़ार छेद हो गए थे, इसीलिए उनमें कुछ टिकता ही नहीं था।
वे एक दूसरे के साथ नहीं, एक दूसरे में रहना चाहते थे, पहले की तरह। लेकिन वे अब दो इंसानों से ज़्यादा एक स्त्री और एक पुरुष थे। पुरुष उसे हमेशा अपनी बाईं तरफ़ रखता था। हाथ में हाथ डाले वे चुपचाप हवा में तैरते थे, हाथ की पकड़ ऐसी थी कि एक की हथेली के तिल का निशान दूसरे की हथेली में उग आया था। वे अपने घर को बहुत याद करते, और जब भी रोते, तो नमकीन-सी बरसात होती। होती ही रहती। ज़मीन पर रहने वाली दुनिया और साइंसदां किस्‍म के लोग उस बरसात के पानी को पोखरों-तालाबों में जमा करने की जुगतें भिड़ाते, मासूम-से बच्‍चे उस बरसात में पानी-पानी खेलते, सयाने उसके पानी से अपने काम की कोई न कोई फ़सल उगाने लग जाते। कोई बारिश की उस गंगोत्री की तरफ़ झांक कर नहीं देखना चाहता था, जो दो जोड़ी आंखों से बही आ रही है। उल्‍टे, सब किसी न किसी देवता के हाथ जोड़कर कहते कि ये बारिश ऐसे ही होती रहे।

वे दोनों चाहते हैं कि बारिश रुक जाए, पर क्‍या इस बारिश का रुकना दुनिया की दुआ के खि़लाफ़ चला जाएगा?

25 comments:

Unknown said...

Respected mam
i read it and i hope i got this type of metter in future regular and also hope that you guied us too
www.scam24inhindi.blogspot.com

Udan Tashtari said...

वाह, बहुत उम्दा लेखन. लिखते रहिये, शुभकामनाऐं.

36solutions said...

उत्कृष्ट अंतरमन को बेधते चिंतन की प्रस्तुति के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ।

आरंभ

कुश said...

बहुत सुंदर...

Pratyaksha said...

बड़ी तकलीफदेह उदास बारिश है !

बालकिशन said...

क्या कहूँ?
अद्भुत!
उदासी भी है.
सपना भी है.
ख्वाहिश भी है.
बेहद उम्दा लेखन!

डॉ .अनुराग said...

हकीक़तो की बरिशे अपनी पीछे अक्सर उदासी छोड़ जाती है ....जिंदगी गुजरे वक़्त के साथ....इन्सान की सूरत ही नही उसकी रूह भी बदलती है........
पर आपके लिखने मे एक अजीब सी संजीदगी है.......जो महसूस की जा सकती है..लिखती रहिये.....

Geet Chaturvedi said...

भटकन. नम. उदासी. गीली बारिश. सीली भाप. मद्धम स्‍वर. गहरा अहसास.

सुंदर.
ढेर सारी शुभकामनाएं.

Arun Aditya said...

इस पोस्ट को पढ़कर मुझे RICHARD WATSON DIXON की ये पंक्तियाँ याद आ गईं, पता नहीं क्यों?
And yet,and yet, and yet, how long I tore
My heart, O love! how long,O love! before
I could endure to think of peace, and call
For remedy, from what time thou didst all
Shatter with one bad word, and bitter ruth
Didst mete me for thy patience and my truth.

अनिल रघुराज said...

बड़ी लंबी दारुण कथा का संघनित रूप। बहुतों की हकीकत बयां हो रही है। ऐसी ही एक कोशिश मैंने भी थी लिखने की।

admin said...

बहुत खूब। आपके शब्दों में सघनता है, जो सीधे पाठक के दिल में उतर जाती है। बधाई स्वीकारें।

कुमार आलोक said...

लेखन में इतनी गहराइ है कि कि आपके भाव सीधे दिल में उतर जाते है ..(हाथ में हाथ डाले वे चुपचाप हवा में तैरते थे, हाथ की पकड़ ऐसी थी कि एक की हथेली के तिल का निशान दूसरे की हथेली में उग आया था..)...काव्यात्मक शैली में लेखन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

शायदा said...

बहुत शुक्रिया आप सबका। रामलाल जी, समीर जी, कुश, प्रत्‍यक्षाजी, बालकिशन जी, डॉ. अनुराग, अरुण जी, अनिल रघुराज जी, संजीव जी, अरविंद मिश्रा जी और कुमार आलोक जी आप सबका आभार यहां आने के लिए। आप सब आते रहेंगे ऐसा विश्‍वास दिला रही हैं आपकी टिप्‍पणियां। और हां गीत, तुम्‍हारी शुभकामनाओं की जरूरत हमेशा रहेगी।

गौरव सोलंकी said...

एक ही तरीका है कि वे अपनी उसी नूर की बूंद से बनी रुह से एक दूसरे को फिर से जन्म दें। एक दूसरे के भीतर रहने के लिए इतना तो किया ही जा सकता है...और किया भी जाना चाहिए...

ravindra vyas said...

आत्मा एक घर है जिसमें देह का रोना सुनाई देता है। देह की मिट्टी गीली होती है औऱ आत्मा से धुंआ उठता है। और रोना भी एक तरह का बेआवाज स्वप्न है जिसमें हिचकियां रहती हैं और हिचकियां एक चादर है जिसके रेशों में दुःख का रंग है। इसी रंग से इंद्रधनुष बनता है और इसके सारे रंग निचुड़कर आंसू में बदल जाते हैं औऱ बादलों में उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं।
हम चुपचाप बारिश में भीगते रहते हैं और बारिश चुपचाप होती रहती है...
रवींद्र व्यास, इंदौर

shashi said...

aapko apun idhar nmste bolne aaya...kya sun rhi hain?

Unknown said...

शीर्षक बेहद शानदार है...

Dr. Chandra Kumar Jain said...

निहायत अलहदा....सबसे जुदा
कुछ...बहुत कुछ अलग संवेदना
जिसे आप शब्दों के लिबास में
सशरीर पेश कर रहीं है.....
भाषा का ऐसा रूप
ब्लॉग-जगत में निराला है.
============================
पढ़कर अमृता प्रीतम याद आ जाती हैं
बरबस.....
मेरी शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन

Unknown said...

pratikriya k liye shabd nahi chun pa raha hun shayda ji, khamosh rahker hi pratikriya dena chahunga.

Jyoti said...

'इस बूंद के आधेपन की ख़ातिर वे पूरे के पूरे एक-दूसरे में रहने लगे थे।...'
बहुत khoob !
मैं इस पंक्ति पे बहुत देर के लिए रुका रह गया।
लगा कि अब और क्या कहने को बाकी रह गया।
आपके शब्दों में खुदाई इम्तहान का नूर है ,
बधाई की इतने gahre utar कर भी sahajta भरपूर है ।

महेन said...

गद्य है कि पद्य? एक एक शब्द में कविता बह रही है। मुझे दे दें ये कहानी… एक महाकाव्य तो आसानी से रिसता दिख रहा है मुझे इसमें से। बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है।
शुभकामनाएं।

सुभाष नीरव said...

इतना सुन्दर गद्य ! गद्य में सघन काव्यात्मकता भी ! आपकी कलम में भीतर तक असर करने की अद्भुत शक्ति है। इसे बरकरार रखें। मैं "मातील्दा" का लिंक अपने ब्लाग्स में देना चाहता हूँ। कोई आपत्ति तो नहीं? और हाँ, आपका दूसरा ब्लाग- "उनींदरा" अभी खाली है। क्यों ? कब आरंभ कर रही हैं?

कुमार आलोक said...

MAINE APNE BLOG MAIN AAPKE BLOG KAA LINK DALA HAI...SUNDAR BLOG HAI...AGAR PARESHAANEE HO TO KAHENGE

neelima garg said...

u write beautifully......

सुजाता said...

खूबसूरत गद्य !