
अधर में वह चुप भी थी, जो उनके होठों के भीतर सिसक की गूंज बनकर रहती थी। कोहराम और चीख़-पुकार अब बाहर नहीं, अंदर ही घुटते थे। जिससे कभी-कभी ख़ुद उनके ही कान फटने लगते। उन्होंने अपने अंदर एकांत बो लिया था, ऐसा एकांत जो रात-दिन फैलता और उन्हें अकेला करता जाता। उतना ही अकेला जितना वह चांद था जो चुपचाप उनकी चुप्पी को देख रहा था। बिना आवाज़ के वो उन दोनों को समझा देना चाहता था कि अकेलेपन के पौधे को खाद-पानी मत दो, क्योंकि एक बार वह ख़ुद ऐसा करके आज तक अकेले रहने को अभिशप्त है। अकेलेपन को उससे ज़्यादा कोई नहीं जानता था। वे दोनों चांद की बात समझ रहे थे, लेकिन शायद वे भी अभिशप्त थे उस चुप और अकेलेपन को जीने के लिए, जिसमें हरपल गुज़र रहा था उनका।
उनके बीच की दूरी कितनी थी... जनम भर दौड़ते रहो तो भी पार न पा सको, और एक हल्की सी सरग़ोशी को जिंदा कर दो, तो एक झटके में ख़त्म हो जाए...। जितनी क़ुरबत... उतना ही फ़ासला। वे एक दूसरे की तरफ़ देखना भी चाहते, तो वहां कुछ न दिखता... सिवाय एक बिंदी के...। बिंदी अक्सर काली होती, कभी-कभार नारंगी और हरी भी। स्त्री काली बिंदी को अपशकुन मानती थी... पुरुष हर रंग की बिंदी के फलसफे पर किताब लिख सकता था। स्पर्श की अनिवार्यता के सिद्धांत को पूरी तरह ख़ारिज करते हुए कुछ नया रचने की सोची थी। उनके बीच पांव फैलाकर निरदंद पसरे अकेलेपन को घुड़ककर भगा देने का पूरा साहस रखते हुए भी उसने पक्ष लिया था उसी का। ऐसा लगता था यहां कोई दुआ कभी काम नहीं आएगी।
वहां ज़रूरत थी एक आवाज़ की, जो अकेलेपन को निगल जाए, एक दुआ की, जो दो हिस्सों में नहीं, एक सुर में साबुत आसमान तक जाए, एक ईमानदार दुआ की, जो अधर में लटकी बाक़ी दुआओं से नज़रें बचाते हुए न चले, बल्कि पूरी सच्चाई से क़ुदरत तक पहुंच सके...
चुप के बियाबान में आवाज़ का बूटा रोप भी दें, तो सुबहोशाम उसे पानी कौन देगा? अनमनी उदारता के किसी क्षण में ईश्वर ने अगर अधर में लटकी दुआ को ज़मीन पर जाने का हुक्म भी दे दिया, तो तारे की तरह टूटकर गिरती उस दुआ को हथेलियां फैलाकर लोकेगा कौन?
23 comments:
चुप के बियाबान में आवाज़ का बूटा रोप भी दें, तो सुबहोशाम उसे पानी कौन देगा? अनमनी उदारता के किसी क्षण में ईश्वर ने अगर अधर में लटकी दुआ को ज़मीन पर जाने का हुक्म भी दे दिया, तो तारे की तरह टूटकर गिरती उस दुआ को हथेलियां फैलाकर लोकेगा कौन?
ek jajbe ko itni khobsurti de di....
bahut achcha laga
चुप के बियाबान में आवाज़ के बूटे के बारे में सोच रही हूँ .. कोई संगीत की प्रतीक्षा कर रही हूँ ..
शायद शायदा के अगले पोस्ट में बूटा लतर बन जाये...यहाँ से आगे ..लेट द म्यूज़िक बिगिन ...
बहुत सुन्दर लिखा है.
ओ तुसी चिंता न करो जी मैं लोकूंगा। बेफिकरे रहो हम हूं ना। हा हा हा
वैसे बहुत ही ख़ूबसरूत लिखा है आपने। आपने एक बहुत ज़बरदस्त कला है कि आपको एक शब्द भी दे दें, तो आप एक नावेल उस पर लिख सकती हैं। बहुत बढ़िया।
चुप भी खूब मुखर!!
सुनते थे की लफ्ज़ भी मुए बोलते है ......आज देख लिया......
samvednaon ko bahut saleekey sey shabdon mein utara hai.kabhi fursat ho to meri post bhi dekhiye
चुप के बियाबान में आवाज़ का बूटा रोप भी दें, तो सुबहोशाम उसे पानी कौन देगा?
This is surreal ... how come ?
khoobsoorat likhti hain aap
बेहद खूबसूरत ढंग से रचा गया चुप का बियाबान हमारे अन्दर ही है.. उसमें रोपे गए आवाज़ के बूटे को हमने ही पानी देना है...टूटे तारे की तरह गिरती दुआ को भी हमने खुद ही हथेलियों में लेना है.
स्त्री काली बिंदी को अपशकुन मानती थी--क्यों???
चुप के बियाबान में आवाज़ का बूटा रोप भी दें, तो सुबहोशाम उसे पानी कौन देगा? अनमनी उदारता के किसी क्षण में ईश्वर ने अगर अधर में लटकी दुआ को ज़मीन पर जाने का हुक्म भी दे दिया, तो तारे की तरह टूटकर गिरती उस दुआ को हथेलियां फैलाकर रोकेगा कौन?
शायदा, बहुत सुन्दर शब्दों और भावों को चनकर लिखा है ये
बेहतरीन!! एक उम्दा लेखन का उत्कृष्ट नमूना!! वाह!!
विमल राय की एक फ़िल्म थी- प्रेमपत्र. शशी कपूर और साधना एक-दूसरे के हाथ में पत्र रख सकते थे, नहीं रखते, गले में स्टेथेस्कोप लगाये सर्दीली आहें भरते एक-दूसरे से नज़रें चुराते रहते हैं. मैं भी पता नहीं क्यों, कुछ वैसा-वैसा ही फ़ील कर रहा हूं. क्यों कर रहा हूं?
बहुत खूबसूरत लिखा है....शब्दों का जादू इसे ही कहते हैं!
umda gadya...
दरअसल दुआएं भी बदल गई थीं। स्त्री चुप के टूट जाने की दुआ मांगती और पुरुष उस चुप को सहन कर सकने की शक्ति मांगता, सब्र मांगता.... जबकि दुआएं थीं कि उनके भूल जाने को सज़ा देती हुई ज़मीन और आसमान के बीच किसी बादल के सफ़ेद केशों में बरसों पुराने किसी गुलाब की तरह अटकी रहती
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चुप के बियाबान में आवाज़ का बूटा रोप भी दें, तो सुबहोशाम उसे पानी कौन देगा? अनमनी उदारता के किसी क्षण में ईश्वर ने अगर अधर में लटकी दुआ को ज़मीन पर जाने का हुक्म भी दे दिया, तो तारे की तरह टूटकर गिरती उस दुआ को हथेलियां फैलाकर लोकेगा कौन?
शायदा, बहुत ही खूब सूरत लिखा है. क्या कहूं..पढ़ कर सोचने पर मजबूर हूँ. सुंदर विचार..थिंकिंग. दर्शन. एवेरी थिंग इज देअर. ऐसे ही लिखते रहें.
शायदाजी, आपने अपनी पहली पोस्ट से जो अपेक्षाएं मुझमें जगाईं थी वे इस पोस्ट तक बरकरार हैं। और मैं जानता हूं यह एक मुश्किल और चुनौतीभरा काम है। आप इसे ध्यानस्थ होकर कर रही हैं, यह सुखद है। कई लोग भाषा को भाषा में हासिल करने की कोशिश करते हैं और उनसे कथ्य का मर्म मर जाता है, सिर्फ शिल्प का ताबूत चमकदार दिखाई देता रहता है। मुझे कहने दीजिए आप में कथ्य और शिल्प का अनोखा मेल है हालांकि मैं यह भी जानता हूं कि अब कथ्य और शिल्प की बहर बेमानी हो चुकी है फिर भी...
मैं इसके आगे देख रहा हूं और जैसा कि प्रत्यक्षाजी ने कहा कि बूटे खिलने का इंतजार है जो लतर बन जाए...लेकिन लगता है लतर बन गई तो फिर बियाबां का मजां भी क्या?
शायदा जी, क्या कहूं ? मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं ! इतना उम्दा कैसे लिख लेती हैं आप ? बहुत भीतर तक उतर जाते हैं आपके शब्द…
बधाई !
आपकी टिप्पणी के जरिए आपके ब्लाग तक पहुंचा। आपकी भाषा लगभग हतप्रभ कर देने वाली है। सुभाष जी जैसा ही मेरा हाल है। और क्या कह सकता हूं सिवाय इसके कि इसे बनाए रखें...
उम्दा लेखन , गहरी संवेदनाये..अच्छा लिखा है आपने..चुप के बियावान में भी...शब्द खामोश नहीं॥
good
रिश्तों की जमीन पर जब चुप का जंगल उगने लगे आवाज़ का बूटा लगाने की बहुत जरूरत हो जाती है।
बहुत संवेदनशीलता है आपके लेखन में। धन्यवाद
अकेलेपन को उससे ज़्यादा कोई नहीं जानता था। वे दोनों चांद की बात समझ रहे थे, लेकिन शायद वे भी अभिशप्त थे उस चुप और अकेलेपन को जीने के लिए, जिसमें हरपल गुज़र रहा था उनका।
उन दोनों का अकेलापन उनका अपना ही तो बोया हुआ था। फिर क्या था जो दोनों को साथ बांधे हुआ था।
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