Wednesday, 15 October 2008
चांद को पिघलाकर कान का फूल बनाना
अपने अंदर बने मौन के कुएं में वे एक शब्द छप्प से फेंकते और देर तक उससे बने वलय देखते रहते। जांचना जैसे ज़रूरी हो गया था कि शब्दों का सही अर्थ प्रतिध्वनित हो रहा है या नहीं। मानो एक गोपनीय प्रयोगशाला में परख लेने के बाद ही वे अब शब्दों को बाहर लाना चाहते हों। कितना अजीब था एक दूसरे की नज़र से बचने के लिए नहीं बल्कि ठीक से देख सकने के लिए आंख बंद कर लिया जाना। इन्हीं दिनों तो एक बार फिर आविष्कार किया था उन्होंने उस नूर की उस बूंद का जिसे ईश्वर ने उनकी आत्मा में आधा-आधा रोपा था। यही एक बात उन्हें बहुत सुख देती।
इसी सुख के बीच ऐन सिर पर आकर टंग गई पूरनमासी ने धीरे से आकर स्त्री के कान में रहस्य खोला- आज की रात सब कुछ मेरी चांदनी से धो लेना... सारा कलुष दूर हो जाएगा....। इतना उजलापन होगा जीवन में कि कभी किसी अंधेरे का साहस नहीं होगा पास फटकने का। यह अंधविश्वास था लेकिन स्त्री को इसे मान लेने में कोई उज्र न हुआ। उसने एक-एक करके वे सारे शब्द चांदनी में धो डाले जो उनके बीच सांझे थे और मैले होकर बहुत चुभते थे। उन सारी कामनाओं को एक बार फिर बाहर निकालकर चांदनी दिखा दी जो मन के कोनों में पड़े-पड़े अपना रंग-रूप खो रही थीं। उसे लगा इस बार पूरनमासी एक रात के लिए नहीं बल्कि पूरे जीवन के लिए आई है, प्रेम के चक्र को पूरा करती रिश्तों की पूरनमासी। ब्रह़मकमल इस बार खुलकर खिलखिलाए थे।
स्त्री सबकुछ उजला कर लेना चाहती थी तो पुरुष का कारीगर दिमाग़ इस चांदनी से एक ऐसा गहना गढ़ना चाह रहा था जो वो स्त्री को दे सके निशानी के तौर पर। उसने कहा- मैं एक पाज़ेब बनाता हूं....फिर कहा नहीं कंगन बनाना चाहिए....फिर सोचने लगा चोटी में गूंथ सकने लायक फूल ही क्यों न बना दूं....। उसका चित्त थिरता नही था और स्त्री ने सब पढ़ लिया था उसकी आंखों में। कहने लगी- तुम एक अंगूठी क्यों नहीं बनाते, मेरी अनामिका के लिए....? पुरुष को बात जंच गई लेकिन बनाते-बनाते उसका चंचल मन फिर बदला और वो बनाने बैठ गया ऐसे कर्णफूल जो चांदनी की सबसे उजली किरण को पिघलाकर गढे़ जाने थे।
स्त्री अपनी उंगलियां देखते हुए एक अंगूठी की कल्पना कर रही थी कि दमकते हुए कर्णफूल उसके कानों की लौ को छूने लगे...। हंसते हुए स्त्री ने पूछा- तुम याद रख सकोगे कर्णफूल और मुझे... पुरुष ने कहा- मैंने ही तो बनाए हैं, क्यों याद नहीं रखूंगा। अंगूठी तो इसलिए नहीं बनाई कि कहीं पानी पीते हुए वो उंगली से फिसलकर किसी मछली के पेट तक न पहुंच जाए...। कहते हुए उसकी आवाज़ इतनी पारदर्शी हो गई थी कि उसमें शामिल सारे सच्चे रंग दिप-दिप कर उठे थे.... इसी समय चांद को पहली बार लगा कि उससे ज्यादा चमकदार है यह प्रेम और हर पवित्रता से ज्यादा पवित्र है इसका रंग। पुरुष झूठ नहीं बोला था। उसे विश्वास था कि वो अपने किए प्रेम की तरह अपने गढ़े गहने को भी हमेशा, हर हाल में पहचान सकेगा....
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20 comments:
Sundar sabd chitran. bahut khoob.
स्त्री अपनी उंगलियां देखते हुए एक अंगूठी की कल्पना कर रही थी कि दमकते हुए कर्णफूल उसके कानों की लौ को छूने लगे...। हंसते हुए स्त्री ने पूछा- तुम याद रख सकोगे कर्णफूल और मुझे... पुरुष ने कहा- मैंने ही तो बनाए हैं, क्यों याद नहीं रखूंगा।
बहुत ख़ूब...बेहतरीन तहरीर है...
शायदाजी, माफ कीजिएगा, मैं इस पोस्ट पर फिदा हूं...
shyaada
expressive adn nice post
बहुत बहुत बेहतरीन ..lajwaab कर देने waali पोस्ट
बहुत ख़ूब, मान गए आपके हुनर को!
हमेशा की तरह.....लाज़वाब!
bahut khoob..sundar chitran.
बड़ी रौशनी है इन चाँद से पिघले फूलों में...क्या इसमें मिल जायेगी चाभी?!!
आपने बयान किया है शायदा जी चाँद सी उजली छवि से चमकते एक एक अक्षर बहुत सुँदर हैँ ....
गाढ़े अहसास एकदम से तरल ? कैसे-कैसे??
बहुत अच्छा /सदा सा
अति सुंदर...अद्भुद शब्द चित्र......लाजवाब लिखा है आपने.......
दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ ""
आज एक साथ तीन पोस्ट पढ़कर
अचंभित हूँ कि किसने कह दिया शब्द
निर्जीव होते हैं.....!
आपने
इस सोच को आँखें बंद करके देखने की
एक नई दुनिया से रूबरू कर दिखाया है.
आपके शब्द, बोलते-बतियाते हुए ऐसी
जुम्बिश पैदा कर रहे हैं कि सिवा मौन के
और किसी भाषा में कुछ कह पाना सम्भव
नहीं है..........शुक्रिया आपका.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
वाह ! इस पोस्ट की तारीफ़ के लिए मेरे पास शब्द कम पड़ रहे हैं।
शायदा जी
अद्भुत, गजब । आपकी भाषा में जो लालित्य है, वह आजकल कम ही देखने को मिलता है। शब्दों में निहित संदेश गहराई तक जाकर संवेदनाओं के तार झंकृत करते हैं। मन करता है एक ही बार में सारे आलेख पढ़ डालें। पढ़ेंगे भी। एक साथ न सही। क्रमशः ही। एक बात कर्णफूल के बारे में। यह ऐसा आभूषण है जो भारत से अरब देशों में गया। कुछ अरसा पहले स्वर्गीय मुस्तफा खां मद्दाह का ऊर्दू हिंदी शब्दकोष पलट रहा था तभी यह जानकारी पता चली। अरबी अथवा फारसी में ( पक्का याद नहीं )कर्णफूल को करनफुल्ल कहते हैं।
aur is post par mujhe koi tippani filhaal soojh nahi rahee hai...sammohan se bahar nikalkar dobaara padhoonga
Bahut sundar Shayda ji, maja aa gaya. yahi kala hoti jo gusum se
shabdon me jaan dal deti hai.
Bahut sundar Shayda ji, maja aa gaya. yahi kala hoti jo gusum se
shabdon me jaan dal deti hai.
kya masoom si khwahish hai..:)
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