- तुम्हारी भाषा में गाल को क्या कहते हैं?
- गाल को? हम्म्म्... होंठ कहते हैं।
- तो फिर आंख को नाक कहते होंगे?
- नहीं जी, आंख को तो घर कहते हैं।
- अच्छा?
- हां जी। आंख में रहा जाता है। सपना बनकर, आंसू बनकर, बादल बनकर... और किरकिरी बनकर।
- और घर का दरवाज़ा? जो कभी वह बंद हो गया तो?
- जो बाहर से बंद हो गया, तो समझो, भीतर वाले कहीं और रहने चले गए।
- और भीतर से बंद हो गया तो?
- तो समझो, भीतर वालों को अब कहीं नहीं जाना, कभी भी। बंद दरवाज़े के भीतर वे हमेशा साथ-साथ रहने वाले हैं।
- आंख के भीतर दीवार रहती है?
- दीवार में एक खिड़की भी रहती है।
- खिड़की से कौन झांकता है?
- वह हवा, जो दीवार के उस पार रहती है।
- वह हवा वहां से हट गई तो?
- उस हवा की ख़ाली जगह वहां से कभी न हटेगी।
- ख़ाली जगह इंतज़ार करती रहेगी।
- इंतज़ार क्या है? एक बारिश ही तो है।
- और बारिश ईमानदार न हुई तो?
- तो वह एक पेड़ बन जाएगी, जिस पर कभी सचमुच की बारिश न हुई हो। जो एक बड़ा छत जैसा सिर लिए निपट अंधेरे में ख़ुद पर शाप की तरह बरसती गरमी झेलेगा।
- हवा से उसका काम न चलेगा?
- हवा तो कब की हट चुकी होगी।
- तो उसका क्या होगा, जिसका घर हवा में है?
- वे बेदरो-दीवार सा एक घर बनाएंगे, जहां कोई हमसाया न होगा, पासबां भी नहीं होगा।
- हवा तो उसमें भी चाहिए होगी?
- हम्म... मैं एक फूंक मारूंगा, जिससे तेरे कानों के बूंदें हिलेंगे और उस हवा से और हवा बन जाएगी।
स्त्री ने अपने कान को उंगली से स्पर्श किया। जैसे ट्रॉय की हेलेन ने छुआ था। जैसे एक पुच्छल तारे ने चांद को छुआ था और दुखी होकर अपने बदन से रोशनी छीलकर फेंक दी थी। जैसे लाजवंती घास ने बग़ल से गुज़रती चुन्नी को छुआ था और हमेशा के लिए अपनी सकुचाहट में खो गई थी।
स्त्री ने जाने कब से बूंदे नहीं पहने थे।
और उसके बाद वह चुप हो गया। स्त्री चीज़ों को जोड़कर रखना चाहती थी, पुरुष किसी नए इतिहास के लेखन के लिए बार-बार क़लम की निब घिस रहा था।
स्त्री ने पूछा- हमारे घर की छत कहां गई?
- किसी थके हुए फेफड़े को दान कर दी। वह सांस ले-लेकर थक चुके थे। छत की हवा किसी को जीवन दे रही है।
स्त्री सीढ़ी चढ़ते हुए हांफ रही थी और छत के बाद बची हुई, छत की ख़ाली जगह को देख रही थी।
30 comments:
स्त्री चीज़ों को जोड़कर रखना चाहती थी, पुरुष किसी नए इतिहास के लेखन के लिए बार-बार क़लम की निब घिस रहा था।
...is nukte ko badhaiye...mujhe yh khasa dilchasp lag rha hai...bahut waqt liya...pr achhi chizen waqt to leti hi samne aane men hai...
ओह इतनी फिलासफी की खोपड़ी चकरा रही है,इस हवा घर से जाने का मनहै भी नहीं भी पर भय से भाग रही हूँ कही मुझ पर भी कुछ सवार न हो जाए.. जो भी हो खूबसुरत हैं आप...
हाँ जी हाँ हम भी सहमत हैं.
हां जी। आंख में रहा जाता है। सपना बनकर, आंसू बनकर, बादल बनकर... और किरकिरी बनकर।
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आपकी लेखनी बहुत प्रभावी है ।एक पीस को बार बार पढने को मन होता है । बधाई स्वीकारें !
बहुत ही सुंदर शैली में यथार्थ का चित्रण।
वाह शायदा जी कहर बरपा दिया आपने शायद मेरा कहना कि पंजाबी भाषा में पटाखा से भी कोई और अच्छा शब्द है तो वो है फिर भी देर आए दुरुस्त आए बहुत ही अच्छी लगी आपकी पोस्ट मैंने कल ही आपको लिखा था कि अब तो काफी दिन हो गए आ जाओ और आप आ गए धन्यवाद आपका और बहुत बहुत बधाई
प्रतिकात्मक बिंबो के जरिए यथार्थ का बेजोड चित्रण ...हालांकि आपकी लिखी हुइ कुछ पंक्तियां कपार के उपर से भी गुजर जाती है ...
शायदा आपा
आप बहुत ख़राब हैं...
इतना अच्छा लिखतीं हैं...
और वह भी इत्ते बड़े अंतराल के बाद ?
आपके लिखे को पढ़ें तो समझ में आता है कि इसकू कहते हैं जी ओरिजनल.हम तो बस कुछ कानसेन बनकर क़लमघिस्सी कर लेते हैं , हमारे (यानी मेरे) पास कुछ नया कहाँ...
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कुछेक बोझिल पंक्तियों को यदि बख़्स दें,
तो अत्युत्तम कोमल भाव । साधुवाद !
अति सुन्दर लिखा है।
उफ़्फ़!
और जो आपने ये विन्सेन्ट के कमरे को चिपका लिया अपने यहां.
शुक्रिया मी लॉर्ड!
excellent
Bahot sunder lekhan hai aapka -
Itni der na karein likhtee rahiyega,
sa sneh,
-Lavanya
सिर के ऊपर से काफ़ी कुछ निकल गया… मगर अच्छा है।
स्त्री सीढ़ी चढ़ते हुए हांफ रही थी और छत के बाद बची हुई, छत की ख़ाली जगह को देख रही थी।
पता नही क्या है इसमे ? एक साँस में पढ़ गया ! जैसे हवा ने पढा दिया हो ! और मैं भागते हुए हांफ रहा हूँ ये कहते हुए की इसमे बहुत कुछ है ! नायाब ... शब्द नही हैं तारीफ़ के लिए !
sach me aanko me raha jaata hai, badhiya rachana bahut badhai aapko
सोचता हु क्या क्या mention करू.... हवा, घर या पुच्छल तारे..... सब हवा है और वह हवा जो फेफडो का तो पता नही नसों को जरुर फड़का दे
...! :)
wonderful, bahut badhia...badhai
रात सी पोस्ट पर लफ्जों के तारे टिमटिमा रहे हैं...अपनी अपनी जगह पर बिना हिले डुले...और रहस्य का संसार रच रहे हैं...बेहद खूबसूरत पोस्ट.
नीरज
जब भी नेट पर बैठता था, मातील्दा के लिंक को एकबार अवश्य क्लिक करता था इस उम्मीद से कि आज शायदा की नई पोस्ट पढ़ने को मिलेगी, पर निराशा हाथ लगती रही। 25 जुलाई को नेट पर नहीं बैठ पाया, 26 जुलाई यानी आज देखा तो आपकी नई पोस्ट स्वागत में "आइए… आइए…" पुकारती दिखी। बेहद बेचैनी के साथ पढ़ा। पोस्ट के अन्तिम हिस्से ने बहुत स्पर्श किया। आपने देर से ही पोस्ट लिखी लेकिन उम्दा लिखी। बधाई ! एक ही दिन में 20 टिप्पणियाँ दर्शाती हैं कि आपकी हर पोस्ट का कितनी बेसब्री से इंतज़ार किया जाता है।
नमस्कार " मतील्दा जी "
आपके ब्लॉग के काफ़ी सारे पोस्ट पढ़े ,बहुत रुचिकार लेखन है
ब्लॉग्स आपके लेखन की सक्रियता के लए आपको बहुत बधाई
कल बेंगलोर के धमाके से मान बड़ा आहत हुआ
इसी को लेकर एक आव्हान के तौर पर आज मैने एक शेर पोस्ट किया है
" इस धरा पर दोस्तों फिर गिद्ध मंडराने लगे
मौत का सामान फ़ि जुटने लगा ,कुछ कीजिए ...."
शेष रचना के लिए देखें
http;mainsamayhun.blogspot.com
प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा मे
डॉ.उदय 'मणि ' कौशिक
बहुत ही सुंदर,यथार्थ की सुंदर कलात्मक प्रस्तुति.आत्मविस्मृत करा देने वाले शब्द भाव समूह. शायद जी,
पढ़ते वक्त लगा जैसे शब्दों भावों ने बांधकर बहा लिया है अपने साथ.बहुत ही सुंदर लिखा है.ईश्वर आपके लेखनी को सबलता प्रदान करें.लिखती रहें.
आपके लेख को पढ़ने के बाद एक गाने के दो बोल कहूंगा बस बाकी समझ जाइएगा।
क्या ख़ूब लिखती हो
बड़ा सुंदर लिखती हो।
बहुत प्रभावी लेखनी
बातों-बातों में, एक बात से निकलती दूसरी बात। दिल से निकलकर दिल में उतरती हुई। जीवन मे जीने के मर्म को छूती हुई। समझती हुई। और यह बात कहने की संवेदनशील संवाद-शैली भी है। मेरे प्रिय उपन्यासकार विनोदकुमार शुक्ल को आपने ठीक ही याद किया है और अपने प्रिय चित्रकार की पेंटिंग देखकर भी दिल खुश हो गया।
रवींद्र व्यास, इंदौर
बहुत सधा हुआ
बेहद प्रभावशाली.
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डा.चन्द्रकुमार जैन
तुम्हारी भाषा में गाल को क्या कहते हैं?
- गाल को? हम्म्म्... होंठ कहते हैं।
- तो फिर आंख को नाक कहते होंगे?
- नहीं जी, आंख को तो घर कहते हैं।
- अच्छा?
- हां जी। आंख में रहा जाता है। सपना बनकर, आंसू बनकर, बादल बनकर... और किरकिरी बनकर।
bahut khub
वाह क्या बिंबों क प्रयोग और क्या सुन्दर शब्द रचना। पढता ही रह गया मैं तो। बहुत खूब और बेहतर कविता लिखी है आपने। बधाई आपको।
aakpe blog kaa koi bhi diwaanaa ho sakta hai. aap kitni mehnat karten nischit rup se aap sadhuwad ke patra hain. main aapke khoji kaam se bahut prabhawit hun. kuchh hamen bhi bataiye janab Arun Kumar Jha
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