चुप को चुपके से तोड़ देने की बात पहले किसके मन में आई....इसे लिखकर रखने की ज़रूरत नहीं थी। इतना समझ लेना काफ़ी था कि वे अपने बीच बीत चुके सदियों के मौन का कोई निशान बाक़ी नहीं रखना चाहते। सचमुच रस्सी का अस्तित्व महज़ उसे पकड़े रहने में ही तो था, सिरा हाथ से छूटा और उसके बाद पता ही न चला कि कहां गई वो अनिष्टकारी चुप। अब वहां आवाज़ थी शब्द-दर-शब्द...गूंज-दर-गूंज। आदिम बोल सच था और वो चुप टूट जाने वाला झूठ। उसकी अगवानी नहीं की गई थी तो विदा करने की जरू़रत भी नहीं पड़ी। पराजित कौन हुआ था....इस बहस से दूर स्त्री और पुरुष की चिंता अब उन अफ़वाहों पर थी जो पंख लगाए घूमतीं और कहतीं पतेदार प्रेम लापता हो गया....या फिर वे एक दूसरे के लिए बने होने के सच को भूल चुके हैं....।
पुरुष उसे समझाता- कुछ नहीं है ये सब.... सच सिर्फ़ हमारा एक दूसरे के पास होना है... सच सिर्फ वो तिल है जो इतनी दूर जाने पर भी अपनी जगह कायम रहा...सच आंख का वो गीलापन है जो सूख नहीं सका........सच सिर्फ़ वो आवाज़ है जिसे सुनकर मैं चुप नही रह सका...।
स्त्री उसकी बात मान लेती और सोचने लगती- अफ़वाहें भी चार दिन की हैं जैसे चुप की उम्र थोड़ी थी... राहत की एक नरम सांस उसे छूती और वह आंख बंद करके इस बात पर विश्वास करने लगती कि आज इस पल जो है वही सच है।
इस बात पर शुक्र मनाया जा सकता था कि आंख में बचे घर वाला दरवाजा़ न अंदर से बंद किया जा सका और न ही बाहर से उसपर ताला डाला गया... वहां रहने वाले वे दोनों अपनी शक्ल साफ़-साफ़ देखते हुए इस बात की तसल्ली कर सकते थे कि वहां कोई और कभी था ही नहीं। पुरुष टकटकी लगाकर उस माथे की तरफ़ देखते हुए एक बार फिर कहता चाहता था... यही है सृष्टि का सबसे सुंदर माथा....। यहीं वो सूर्य के डूब जाने और फिर से उग आने का रहस्य खोजता रहा है... लेकिन इससे पहले ही उधर से सवाल आ जाता- बताओ तो कितना सुंदर.... पुरुष के पास हमेशा से वो जवाब साबुत था सो झट से कहा- बहुत सुंदर... सवाल और मुखर होता....बहुत ? तब वो कहता- बहुत मतलब बहुत, फिर से मत पूछना। एक संगीत झन से बजता....शायद आत्मा का ही, ये शब्दों का अपव्यय नहीं था, बल्कि पूरा और कारगर इस्तेमाल कहा गया इसे।
युगों के बाद उस रात वे एक बार फिर अपने आंगन में हरा पौधा लगाने की बात करते-करते सो गए थे....। दूर गए क़दम लौटे थे या फिर सौभाग्य का वह सनातन चिन्ह जो उस माथे पर दोबारा उसी रात नज़र आया था....।
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14 comments:
युगों के बाद उस रात वे एक बार फिर अपने आंगन में हरा पौधा लगाने की बात करते-करते सो गए थे....। दूर गए क़दम लौटे थे या फिर सौभाग्य का वह सनातन चिन्ह जो उस माथे पर दोबारा उसी रात नज़र आया था....।
यही जिंदगी है...कभी कभी जिंदगी पता नही किस रंग में खुश है....कोई नही जानता.....
शायदा जी कमाल की पोस्ट लिखी है आपने...शब्द शब्द बोलता हुआ सा है...वाह...
नीरज
achcha likha hai.
गजब लिखती हैं आप!! वाह! बधाई स्वीकारें.
आपके इस हवा के घर को पढ़ते हुए कभी खोई चाभी भूल नहीं पाती....पता नहीं मिलेगी की नहीं...और जब मिलेगी दरवाज़ा इससे खुलेगा क्या....
आपके शब्द भी हवा के जैसे हैं....साँस बन अंदर चले जाते हैं..
आप बुनती हैं। यह बुनना सहज है। बहुत सीधा और सच्चा। इस बुनने में लुभाने वाली डिजाइन बनाने का अहं नहीं है बल्कि बुनते हुए स्मृति की महकती पगडंडी पर निकल जाने का अ-जाना भाव है। यह वैसे ही जैसे किसी प्यारे गमले में हरी पत्ती का उजाले में आकर चुपचाप होना।
इस पोस्ट पर कुछ बनाने को मन करता है...
स्त्री पुरूष की ये अनसुलझी दास्ताँ ओर उस पर चुप के गमले में शब्दों का पौधा....
bahut..bahut ...bahut achchhi post... yahi amanjasya mai sunana chahati hu.n...ek dusare ko kab tak kose.nge ham, jab poorak hai.n ek dusare ke... waah Shayada Ji..badhai swikaar kare.n
shabdon ka sringar bahoot sundar. bahut matalb bahut, ab age mat pucna ki bahut ka matlab kya hota hai. lazwab
सहज,सुंदर।
बहुत अच्छी तहरीर है...अपने ब्लॉग में आपके ब्लॉग का लिंक दे रही हूं...
शायदा जी, मैं रवीन्द्र व्यास जी की टिप्पणी से शत-प्रतिशत सहमत हूँ। उन्होंने मेरे मन की बात कह दी। आप अपना यह बुनना जारी रखें।
ईगीफेराइंडिका मैग्लोमीनिया के नंगे दो विशाल पेड़ बचे. बाकी विरवे सूख गए। यह पैलियोबाटनिकल रिसर्च की रपट है.
वाह! जिसमें खिले हो फूल वो डाली हरी रहे। बधाई।
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